Wednesday, December 30, 2009

वर्ष नव, हर्ष नव, जीवन उत्कर्ष नव।








आयने ते परायणे दुर्वा रोहन्तु पुष्पिणीः ।
हृदाष्च पुण्डरीकाणि समुदस्य गृहा इमे ।।



ऋग्वेद - 18/30/16



अर्थात्




आपके मार्ग प्रशस्त हों,
उन पर पुष्प हों, नयी कोमल दूब हों,
आपके उद्यम व आपके प्रयास सफल हों,
सुखदायी हों और आपके जीवन सरोवर में
मन को प्रफुल्लित करने वाले कमल खिलें हों।



नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये, इस आशय और अटल विश्वाश के साथ कि, इस नव वर्ष में आपकी प्रत्येक इच्छा, प्रत्येक स्वप्न, प्रत्येक कामनाओं की पूर्ति जल्द से जल्द हो।

जीवन के किसी भी मोड़ पर, कभी भी किसी भी मुश्किल से आपका सामना न हो।

जीवन के प्रत्येक क्षण में, आपके चेहरे पर विजय की मुस्कान और माथे पर विजयश्री का तिलक सदैव ही जगमगाता रहे।

किसको कह दूँ









आज सिर्फ इतना ही कहना है कि, अपनी एक पुरानी रचना निगाह में आ गई, क्यों और किस बात इस रचना का जन्म हुआ, यह आज हमको याद नहीं, लेकिन बस अच्छी लगी आज तो हमने इसको आपके साथ बांटने की सोची और उसी सोच का नतीज़ा है कि, यह बस आप सब के लिए:----


तुमसे बेहतर फिर अब मैं किसको कह दूँ,
अपना कहके तुमको अपना किसको कह दूँ।

यारों ने कोशिश की, कि भूलें तुमको,
तुम मैं ही हूँ अब, किसको कह दूँ।

उनकी अपनी भी कुछ चाहत होगी,
अपनी ही मर्जी सारी, किसको कह दूँ।

हर दिल की ख़्वाहिश है एक साथी,
कम मिलेगें सच्चे, किसको कह दूँ।

जीने को साँसों की ज़रूरत ही कहाँ रही,
चाहतें ही रखे हैं ज़िन्दा, किसको कह दूँ।

‘‘उन्मत्त’’ आज़मा के तोहमत देते हमको,
बेबात ही बदनाम हूँ, किसको कह दूँ।



‘‘उन्मत्त’’

Tuesday, December 29, 2009

ठीक नहीं





ज्यादातर व्यक्ति किसी भी कृत्य के लिए अपने को दोष देकर के मुक्ति पाना चाहता है, चाहे उसने वह कार्य किया हो या न किया हो। ऐसा उन परिस्थितियों में ज्यादा होता है जब अमुक अपकृत्य किसी प्रिय द्वारा कर दिया गया हो। इससे इतर भी व्यक्ति अपने आप को तमाम तरह से छलने का प्रयत्न करता रहता है, लेकिन बहुत दिन तक ऐसा कर नहीं पाता है। कहीं न कहीं उसको इस बात आभास हो ही जाता है कि, वह वास्तव में गलत है। लेकिन यह आभास ज्यादातर काफी देर में होता है जो गलत है, सही समय पर इस बात का आभास करना ज्यादा श्रेष्यकर है।




खुद को खुद छलना ठीक नहीं,
अपने दिल से लड़ना, ठीक नहीं।

माथे पर बस वक्त की धूल है,
वक्त से यूँ डरना, ठीक नहीं।

मेरी मानो, ऐसा कम चाहा मैंने,
अपने ज़ज्बातों से लड़ना, ठीक नहीं।

मेरा क्या है प्यार नहीं है साँसों से,
पर बेवक्त तुम्हारा मरना, ठीक नहीं।

जो लूट रहा है वो सच्चा है,
ऐसी बातें करना, ठीक नहीं।

‘‘उन्मत्त’’ दे पाता तो दे देता,
यूँ भी मेरा खुदा बनना, ठीक नहीं।


‘‘उन्मत्त’’

Sunday, December 20, 2009

ज़िन्दगी








अर्सा पहले हमने एक रचना की थी, हमारी यह रचना जीवन के विरूद्ध रची गयी है, आज हमारे मन ने कहा कि, क्यों न आज उसे आप सब के लिए, आप लोगों के सामने लाया जाए। तकरीबन साढ़े नौ साल हो गये हैं इस रचना को लिखे हुए, बहुत बार हमने इसको पढ़ा है, यह उतनी ही भाती है आज भी, जितना हमको यह, लिखे जाने पर भायी थी। हमारे एक मित्र ने हमको सलाह दिया था कि, इसे छोटा कर दें तो ज्यादा प्रभावशाली हो जाएगी। उन्होनें मात्र इस रचना के लिए नहीं, उस समय की लिखी हुयी रचनाओं के बारे में अपनी राय दी थी, लेकिन हमारा मन नहीं माना कभी, कभी भी हमारे मन ने यह नहीं कहा कि, हम इसे छोटा कर दें, उसके मूल स्वरूप में ही आज, आप सबके लिए लाए हैं। लम्बी होने के कारण सम्भव है कि, यह आपको बोझिल करे। उसके बावजूद भी हम अपनी इस रचना को आप तक पहुंचा रहें हैं।

यह मात्र एक रचना ही नहीं है हमारे लिए, जीवन के प्रति इसी रचना के कारण ही हम उतना लगाव नहीं रखते हैं, जितना सामान्यतः रखा जाता है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि, हम मौत से डरते हैं, इसलिए इस डर को भगाने के लिए हमने इसकी रचना की है। और इस रचना ने हमको हमेशा ही इस बात के लिए तैयार रखा कि, जीवन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं हैं, जिस दिन जीवन को देने वाला, जीवन को लेना चाहेगा, तुम्हारे जीवन को ले लेगा और तुमसे एक बार भी नहीं जानना चाहेगा कि, इस जीवन की अभी तुम्हें कितनी देर तक की और आवश्यकता है। जग रचियता के इसी कृत्य के विरूद्ध यह हमारी रचना है।




ज़िन्दगी
क्या है
कैसे कहे
सब की
सब जाने
मेरे लिए
ज़िन्दगी बस
मेरी रखैल है
चार दिन का साथ है बस
जीवन के इस सफ़र में
एक वजह जीने की
एक कारण जीने का
मुश्किल से पटे
इस जीवन में
चार पल का मज़ा ले लेने का
साधन मात्र है
मेरी ज़िन्दगी,
हर तरफ से
ज़िन्दगी को
भोगता हुआ मैं
लगातार निरन्तर बढ़ रहा हूँ
अपनी हमसफ़र
मौत के पास
इस ज़िन्दगी से दूर
बहुत दूर
जहां पर
न मुश्किलों का घर होगा
न उलझनों का डेरा होगा
न कोई दर्द सताएगा
न कोई अपना रूलाएगा
न कोई सम्बन्ध होगा
न कोई सम्बन्धी होगा
न जीए जाने की कशमकश होगी
न रोटी की भूख
न कपड़े का रोना
न किसी छत की चाहत

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इस ज़िन्दगी में रखा क्या है
बस रूलाती ही है
जब
आ ही फॅसा हूँ
मैं तो
उसे साथ रखना ही था
भोगना ही था
झेलना ही था
घर में रहो
या
कहीं बाहर रहो
एक ही चिन्ता
ज़िन्दगी के प्रति
कि
कहीं ठुकरा न दे
और
और किसी को अपना के
मुह छुपाए
कब अपना दामन छुडाए
चलती हुई साँसों को
भागते हुए जीवन को
पलती कल्पनाओं को
बढ़ती इच्छाओं को
अनदेखा कर के
और किसी की
दुनिया बसाने चली जाए
ऐसी ज़िन्दगी के लिए
मेरी ज़िन्दगी में
मेरे मन कोई स्थान नहीं
जो
उम्र की आख़िरी सांस तक
अपने पीछे भगाया करे
जो भाग न पाए
उसे घसीटा करे
इसके बाद भी
जो तैयार न हो
उसे बेमतलब की ये ज़िन्दगी
छोड़कर चली जाती है
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‘उन्मत्त’
इसीलिए कहता है
हर दुनिया वाले से
हर जीने वाले से
ज़िन्दगी को
कमज़ोरी न बनने दो
अपने पर हावी
न होने दो
हमेशा उस पर हावी रहा
इससे पहले कि
ज़िन्दगी भगाए तुम्हे
तुम उससे पहले भागो
तेज
उसकी रफ़्तार से तेज
हैरान हो जाएगी
ज़िन्दगी तुमसे
हाथ न आओ कभी उसके
हर बार जब मौका मिले
जी भर कि
हॅसिए उस पर
नाक में दम कर दीजिए उसके
फिर देखिए आप
कैसे
घुटनों के बल
ये ज़िन्दगी
घसिटती खुद ही आएगी
उस क्षण आप जो चाहे
वह व्यवहार करें
हर चाहत
जो दिल में है
उसके आगे प्रस्तुत करे
ज़िन्दगी की जड़े कमजोर होती है
अगर
आप तेज गए उससे
तो
यह आपकी जीत होगी
आपकी कल्पनाए भी तब
हकीकत का जामा पहनेगीं
हर ख्वाहिश
जो दिल में है
सब की सब
पूरी हो जाएगी
मगर
इसके सिवाए
कि
ज़िन्दगी आपका
साथ नहीं छोड़ेगी
हर कीमत पर यह होगा
कितना भी चाहे उसे
कितना भी प्रताड़ित करे उसे
अन्त
आपका निश्चित है
तो
क्यों गुलाम बने
क्यों ने उसे
गुलाम बनाए हम
इसके बाद भी हर इन्सान
बेवजह उसे पूजता है
लाख मिन्नतें करता है
थोड़ा सा पाने की लालसा में
हाथ जोड़ के गिड़गिड़ाते है
रोते है
मगर
ज़िन्दगी को
कभी तरस नहीं आता
रोने वालों से
उसे आन्नद आता है
और
तो और
उनको वह रूलाया ही करती है
देती कुछ भी नहीं
हमेशा कुछ न कुछ
ले ही लिया करती है
देने के नाम पर
जो उसके पास है
वह लेने लायक नहीं होता
इसलिए मागना नहीं
हर कोई ले लेना चाहते है
ज़िन्दगी से
हाथ बढ़ाकर
छीन लीजिए उससे

-------------------------------

इसलिए मैं
अपनी ज़िन्दगी को
अपनी रखैल कहता हूँ
क्योंकि
मैं
उससे लेकर हमेशा
उसी को डांटता हूँ
उसको जी भर
भोगता हूँ मैं
उसकी हर चीज पर
अपना हक रख़ता हूँ
उसे चाहता भी हूँ
मगर
वह चाहत
जो दिखावा है
एक भूलावा है
ज़िन्दगी को
कि
मैं चाहता हूँ उसे
इसी भरम ज़िन्दगी मेरी
मुझसे कुछ नहीं कहती
मगर
अपनी इस रखैल को
कुछ कीमत भी
अदा करनी पड़ती है
मगर
यकीनन औरों से कम
कीमत होती है
बड़ी खुशियों के लिए
कई छोटी खुशियों को छोड़ना
और
कभी कभी
बड़ी को खुशी को छोड़
तमाम
छोटी छोटी बिखरी खुशियों
को चुन लेता हूँ मैं
उसमें ही जीता हूँ मैं
मगर
कोई चाह नहीं है जीने की
बस साथ निभा रहा हूँ
ज़िन्दगी का
और
निभाता भी रहूगा
मौत तक
वक्त से पहले
ज़िन्दगी को
छोड़ा नहीं जा सकता है
क्योंकि
मौत भले ही
मेरी हमसफ़र हो
मेरी चाहत हो
मेरी ज़िन्दगी हो
पर
मुझे अपनाएगी नहीं
क्योंकि
इस समय मैं
ज़िन्दगी के साथ हूँ
और
मेरी हमसफ़र
मेरे साथ
किसी के और रहते
नहीं आएगी
जब वह आएगी
तब ज़िन्दगी
को जाना होगा
और
वह जाएगी
बस
ऐसे ही लड़ते हुए
ज़िन्दगी से जीते जाना है
ज़िन्दगी का साथ
निभाए जाना है
उस पल तक
वह
खुद न छोड़ दे
अपने बन्धन से
मुक्त न कर दे
अपने ऋणों से
उऋण न कर दे
तब तक मेरी
और ज़िन्दगी की जंग
चलती रहेगी
कभी मैं उस पर
कभी वो मुझ पर
हावी होगी
मगर
मैं जानता हूँ
जीत न मेरी होगी
न ज़िन्दगी की होगी
जीत होगी अगर
कभी तो
सिर्फ़
और सिर्फ़
मौत की
निश्चित ही मौत की
मगर
अनिश्चित दिन।

‘उन्मत्त’

Thursday, December 17, 2009

सन्दीप ओझा




मित्र, यदि जीवन में न हो तो? यह कल्पना करना भी हमारे लिए दूभर है कि, हमारा जीवन मित्रों के बिना कैसा होता या होगा? शायद हमको अस्तित्व को तलाशना पड़ेगा पुनः यदि हमारे जीवन से हमारे मित्रगणों हटा लिया जाए तो। हमारे मित्रों की संख्या बहुत ही कम हैं, लेकिन यह हमारा सौभाग्य है कि, हमारे मित्र उच्चकोटि के व्यक्ति हैं। जीवन 30 से अधिक सालों में, पिछले 16 सालों में हमने अपने जीवन का बहुत समय, अपने मित्रों के साथ गुजारा है। आज जितनी भी सोचने समझने की क्षमता है, वह हमारे अभीष्ट मित्र सन्दीप कुमार ओझा का है, वो इस श्रेय को लेने से सदैव ही इन्कार करते हैं, लेकिन सच को तो बदला ही नहीं जाया जा सकता है। जीवन के झन्झावतों से अगर हमको किसी में उबारने की क्षमता, इस समय यदि इस दुनिया में है तो, वह सिर्फ और सिर्फ सन्दीप के पास ही है, हमें यह कहते हुए भी संकोच नहीं होता है और होगा कि, धरती पर वह हमारे लिए ईश्वर से कम नहीं है, सुनने यह अटपटा लग सकता है, लेकिन जैसा कि, हमने कहा कि, सच तो हमेशा ही रहेगा, उसको बदला नहीं जा सकता है। शायद अपने आप को हमारे लिए ईश्वर ने यही रूप धारण किया हो? शायद के स्थान पर यकीनन का प्रयोग करना उचित समझेगें।

बहुत बार हमने कोशिश की कि, सन्दीप के महत्व को हम जान पाए, लेकिन हर बार विफल हुए हैं, जितना उसके बारे में सोचते हैं, वह उतना ही करीब होता जाता है हमारे। कई बार शब्दों में भी बांधने का प्रयास किया है हमने, मगर वहां पर भी हार ही गये है हम। मित्रता की शुरूआती दौर से हमारे और उसके बीच अक्सर गर्मागम बहसें हो जाया करती हैं, जिसमें हमेशा ही हम ही हारते हैं और हारा ही करें, यही चाहते भी हैं, क्योंकि उस हार से हमको हमेशा ही एक नहीं, कई सीखें मिल जाया करती हैं। 16 सालों की मित्रता में कई अवसर ऐसे भी आए हैं कि, जहां हम लोगों में बातचीत भी नहीं हुयी है, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि, नाराज़गी के कारण हम लोगों ने मिलना जुलना छोड़ दिया रहा हो, वो हमारे घर, हम उसके घर लगातार जाते रहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे सामान्य दिनों में हुआ करता है। जब से दूरसंचार क्रांति आ गयी है, उसके बाद भी कई नाराज़गियाँ हम दोनों के मध्य हुयी है, इसी बरस दो बार ज्यादा ही नाराज़ हुआ है हम पर वह। वैसे सामान्यतः तो हमेशा ही वह हमसे, हमारी आदतांे के कारण नाराज़ हो उठता है। लेकिन हमको तो उसकी बातों की आदत पड़ गयी है, कुछ दिन उसकी बातें न सुने तो, जैसे खाना ही नहीं पचता है। कभी भी सन्दीप से हमने कुछ भी नहीं छिपाया है, यहाँ तक कि, जो कुछ करने की सोच भी लेते हैं उसको भी उसके बताए बिना रह नहीं पाते हैं।

अपनी लाख चाहतों के बाद भी सन्दीप के लिए कुछ पाने में असमर्थ ही रहें हैं, लेकिन फिर भी कहने के प्रयास से कभी भी विमुख नहीं हुए हैं, सफलता कब प्राप्त होगी? इसके बारे में कुछ कह पाना मुष्किल ही है। शायद जीवन भर इसी प्रयास में रहें कि, हम सन्दीप को अपने शब्दों में कह सकें। हमको इस बात की खुषी हमेशा रहेगी कि, हम उसे कभी भी परिभाषित नहीं कर पाए, साथ ही दुआ करतें हैं कि, सन्दीप का व्यक्तित्व ऐसा हो कि, कभी भी, कोई भी उसको परिभाषित ही न कर पाए, कभी कलमबद्ध न कर सके कोई, अथाह, अन्नत हो उसका स्वरूप।


सन्दीप के विषय में हमारी यही चाहत है, यही हरसत है --------

घर जाएगें, फिर आएगें,
मर जाएगें, फिर आएगें।

भूल न जाना अपने इस साथी को,
मर जाएगें, फिर आएगें।

छूट गया है हाथों से हाथ, मगर,
मर जाएगें, फिर आएगें।

निभाने हैं वादे अपने हमको,
मर जाएगें, फिर आएगें।

जा रहें हैं, सैर को कुछ दिन,
मर जाएगें, फिर आएगें।

‘‘उन्मत्त’’ कौन है, जन्नत में मेरा,
मर जाएगें, फिर आएगें।

Sunday, December 13, 2009

विजयश्री







मन! अक्सर मन से ही हम लोग हार जाते हैं, समझ नहीं आता है जीवन के कई मोड़ों पर कि, सही क्या है? और गलत क्या है? मन उपापोह की स्थिति में रहता है, हर पल, हर लम्हा इसी उधेड़बुन में लगा रहता है मन कि, जो कर रहे हैं वो सही है या जो नहीं करने की सोच रहे हैं, वह सही है। ऐसे समय में कोई भी निर्णय लिया जाए, वह गलत ही लगता है, हर बार पश्चाताना ही पड़ता है, चाहे जो भी निर्णय ले लिया जाए, अपने हर किये पर बार बार सोचने की आवश्यकता महसूस होती है।

अपने मनोभाव को जीतने की आवश्यकता होती है, वह भाव जो हर बार, उपापोह की स्थिति को जन्म देता है। अक्सर अतीत भी इस स्थिति में अपना महत्वपूर्ण लेकिन नकारात्मक भूमिका को निभाता है। हास्यापद तो यह होता है कि, हम लोगों में से सामान्य प्रज्ञा वाला व्यक्ति भी इस बात को जानता रहता है कि, यह सब क्यों हो रहा है? इस सबका कारण क्या है? यह सब किस तरह से काम रहा है? बावजूद इसके भी ऐसी परिस्थितियों में अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग नहीं कर पाते हैं।

ऐसा क्यों होता है? कि नकारात्मकता या अतीत, हर बार, हर मौके पर, विशेषतया उन मौकों पर जहाँ पर अपने आप को बुद्धि और विवेक का प्रयोग करना चाहिए होता है, वहीं पर उसकी कमी का अहसास होता है। नकारात्मकता और अतीत वहीं पर सक्रिय हो उठते हैं, जहाँ पर दृढ़ता और परिपक्तवता के साथ साथ भविष्य के प्रति सही दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।

बहुत ही कठिन परिश्रम के बाद हम इस मनोभाव और अतीत के प्रभाव को कम कर पाए हैं और निरन्तर ही इस प्रयास में हैं कि, इस पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर सकें।

अपनी इस रचना के माध्यम से अपने आप को हम लगातार प्रेरित करते हैं:-


बहुत देर बाद

बहुत लड़ के

मैं जीत ही गया

बहुत कुछ खोकर

बहुतों को खोकर

आखि़रकार

मैं जीत ही गया

इस जीत की कीमत

बहुत ज्यादा हो गयी है

मगर

मैं जीत गया

जीत गया मैं

उस विचार से

उस अहसास से

जो मुझे

कमज़ोर बनाता था

उस विचारधारा से

जो मुझमें

नकारात्मक ऊर्जा भरता था

उस अतीत से

जो बीत गया है

जो बीत चुका है

जो वास्तव में

अब गुजर रहा है

और

अब गुजर जाए शायद।

जीत गया मैं

अपने सारे इन अहसासों से।



‘‘उन्मत्त’’

Thursday, December 10, 2009

इसलिए तन्हा हूँ





दुनिया में मौजूद तमाम व्यवहारों में एक व्यवहार है कि, किसी का किसी के प्रति अपना समर्पण। इस समर्पण में प्रेम, आदर, मान - सम्मान और वो सब कुछ शामिल है जो, किन्हीं दो व्यक्तियों के मध्य सम्बन्धों के उद्धभव के साथ प्रारम्भ होते हैं और उसके साथ ही साथ चला करते हैं। आप किसी के प्रति पूर्ण समर्पित हों और एक दिन अचानक पता चले कि, आप का तो वह व्यक्ति इस्तेमाल कर रहा था, जिसके लिए आप समर्पित थे, उसने सिर्फ आपके साथ ही नहीं, आपकी भावना, संवेदना और उस विश्वाश के साथ, जिस विश्वाश से, जिस चाहत से अन्य अमुक से अपना सम्बन्ध बनाते या जोड़ते है उससे खिलवाड़ किया है। ऐसे समय के हालात् के बारे में कुछ कह पाना, उसे शब्दों में कहना, अत्यन्त ही दुष्कर कार्य है, इसलिए ऐसा प्रयास करने का हमारा कोई भी इरादा नहीं है, न ही ऐसा करने का साहस हम जुटा भी पाएगें।

उपरोक्त स्थिति से इतर एक स्थिति यह होती है कि, आप के अपने विचार के, सोच के, धारणाओं और मान्यताओं के विरूद्ध कोई कार्य करे या आप स्पष्ट और सच्चें हो तो, औरों को इस बात से परेशानी हो सकती है। वैसे तो वह आपकी तारीफ़ करेगा लेकिन, जब कभी उसका काम आप के कारण नहीं हुआ या उसका ऐसा कोई काम जिसे आप ने अपने नियमों के अधीन नहीं किया, तब वह अमुक आपके इस व्यवहार को गलत मान जाएगा, आपको बुरा कहेगा या वह ऐसे प्रयास करेगा कि, जिससे आप की छवि धूमिल हो। अगर वह अमुक आपकी छवि को धूमिल नहीं कर पाएगा तो आपके विरूद्ध खुल कर आ जाएगा। चूँकि आप उसका विरोध कर नहीं पाएगें, इतना कहने के अलावा कि, आप गलत नहीं है। हास्यास्पद स्थिति वहाँ पैदा होती है, जब लोग आपकी बात का समर्थन, आपके आगे करते हैं और इस बात को मानते है कि, अमुक की मांग अनुचित थी, उसके बाद आपके न होने पर, उनको यह शिकायत होती है कि, अमुक कार्य को अमुक के लिए कर दिया गया होता तो, गलत तो नहीं था। इतना कुछ मालूम कोने के बाद भी यह जब किया जाता है जब दुःख होता है, तकलीफ़ होती है इस बात की क्यों यह सब जानते बूझते किया जा रहा है?

इसीलिए शायद हमारे मन यही कहा बताया है हमको कि:-



मानी नहीं औरों की, इसलिए तन्हा हूँ,
बेबाक जो ठहरा मैं, इसलिए तन्हा हूँ।

कम ही बचे हैं, अब अपने मेरे,
कि उसूलों पर चला हूँ, इसलिए तन्हा हूँ।

मेरे साथ तो चले थे वो कदम मिला के,
न कहने दिया झूठ उन्हें, इसलिए तन्हा हूँ।

ज़मीर मार के ज़िन्दा नहीं रह सकता था मैं,
छोड़ा नहीं सच का साथ, इसलिए तन्हा हूँ।

खुद को बनाए रखा हमने खुली किताब,
दो चेहरा न रखा, इसलिए तन्हा हूँ।

‘‘उन्मत्त’’ होता रहता इस्तेमाल तो बेहतर रहता,
अब नहीं हूँ खिलौना, इसलिए तन्हा हूँ।

‘‘उन्मत्त’’

Saturday, December 5, 2009

अन्तहीन पथ



अक्सर लोग उन रास्तों को दोष देते फिरते हैं जिन पर वो चला करते हैं, लेकिन ऐसे लोगों को कौन समझाए कि, रास्ते ने उनकों नहीं, उन्होनें रास्ते को चुना है? तमाम उलहनाओं के बाद, तमाम तरह की भत्र्सनाओं के बाद भी, रास्ते कभी भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होते हैं, वह नहीं बदलते हैं, उनकी नीयती ही न बदलना है। उनको बदलने वाले हम इन्सान ही होते हैं। फिर भी उनको ही दोष दिया करते हैं। अपने आप को देखते ही नहीं कि, वास्तव में गलती हमारी ही है, हमने ही गलत राह को चुना है, हमको ही इस राह को छोड़ कर, सही राह को चुनना है। इसे करने से बेहतर ज्यादातर तो यही किया करते हैं कि, अपने दोषों को, औरों पर डालने का कार्य चलता रहता है।


कभी फुरसत मिले अपने लिए भी तो एक बार सोच कर देखिएगा कि, वास्तव में गलत कौन है? औरों के लिए जिस बुद्धिमत्ता का प्रयोग हम सब कर लेते हैं, वह अपने समय में, अपने बारे में कतई भी नहीं आती है। अपने समय में ऐसा लगता है कि, सब कुछ हम सही रह हैं, लेकिन अगर सिर्फ ऐसा सोचने और मानने कि, सब कुछ सही है, हो जाता तो, दुनिया बहुत ही विचित्र होती। खै़र हम सिर्फ इतना कहेगें कि रास्तों को दोष देना बन्द करना चाहिए, अपने निर्णय को देखिए, परखिए, फिर कोई बात कहिए।






दूर नहीं हैं मंज़िल

न पथ का है दोष कोई

मैंने ही चुना है

जिस पथ को

वह पथ ही है ‘‘अन्तहीन पथ’’

बीत गये साल कई

मैं चल रहा निरन्तर हूँ

ठिकाना दिखने की बात दूर रही

उसके होने की आहट न पायी

अपने पथ को कोसा है मैंने बहुत

बहुत सुनायी है उसको बातें

पथ वो शान्त रहा है

मुझको लेकर चलता रहा है

एक दिन यूँ ही बैठे बैठे

अपने निर्णय को जांचा

पाया तब मैंने

पथ नहीं

पथिक गलत होता है

पथ नहीं चुनता है, पथिक

पथिक चुनता है पथ को

पथ अपने कर्तव्यों पर चलता है

अपने अन्त तक

पथिक को लिए रहता है।


‘‘उन्मत्त’’

Wednesday, December 2, 2009

बनाना है





जीवन में कभी कभी ऐसा लगने लगता है कि, अब कुछ बचा ही नहीं दुनिया में हमारे लिए? कुछ भी हमारा नहीं है और कभी कुछ हमारा होगा भी नहीं, यह अहसास उभरने लगता है मन में। पहला भाव जीवन के लिए नुकसानदेह तो है, लेकिन उतना घातक नहीं है, जितना दूसरा भाव कि, कुछ कभी होगा भी नहीं, यह अत्यन्त ही घातक है। यह भाव जीवन के प्रति सारे आकर्षण को समाप्त कर देता है, जीवन के प्रति उत्साह समाप्त हो जाने के बाद, जीवन जीना बेमानी हो जाता है, इसलिए यह भाव जीवन में नहीं आने देना चाहिए। किन्हीं कारणों से यह भाव अगर आ गया तो, पूरा प्रयत्न करना चाहिए कि, जितनी जल्दी हो सके यह भाव अपने आप से दूर किया जा सके। उससे ज्यादा बेहतर यह है कि जीवन में ऐसा मौका जब भी आता दिखे तो, उसके लिए अपने आप को तैयार रखा जाए, अपने आप को संयमित रखे, शान्त भाव से समय का, परिस्थिति का अवलोकन करें, उसके बाद ही किसी परिणाम पर पहुॅचे और कोई प्रतिक्रिया दें।

बहुत आसान होता है इस तरह की बातें करना, लेकिन प्रश्न यह है कि, कितनी बार अपने लिए ऐसे समय में अपने लिए इन बातों का पालन किया जाता है? समय जब विपरीत लगने लगता है तब, जीवन से भाग जाने के सिवा कोई राह तो नहीं सूझता है। किसी पर भी विश्वास करने का मन भी नहीं करता है, मन क्या? विश्वास ही नहीं होता है किसी पर। ऐसा होता है ज्यादातर, अवसाद जब आपका साथ निभाने आता है तब, यकीनन वह पूरी तैयारी के साथ आता है, इस बात के लिए वह पूरी तरह से तैयार रहता है कि, सम्भवतः आप उसे वापस भेजना चाहें, जिसके लिए वह कतई भी तैयार नहीं रहता है। अपने आप से उसका वादा होता है और वह अपने आप से किये वादे को तोड़ना नहीं चाहता है और तोड़ता भी नहीं है वो।





राह नहीं आसान पर, आसान बनाना है ,
नहीं है अभी मगर पहचान, बनाना है।

हाथो की लकीरों का होगा ही हासिल,
कर्मों से खुदा के लिए फरमान, बनाना है।

पूज रही है मुझको दुनिया, पूजा करे हमारी वो,
खुद में पर मुझको अपना सम्मान, बनाना है।

भटक रहा है इधर उधर, जो पागल सा,
मन की इस चंचलता पर व्यवधान, बनाना है।

अहसासों और भावों का घर था दिल मेरा,
लुट चुका है जो, उसको धनवान, बनाना है।

‘‘उन्मत्त’’ जीवन मेरा है, एक दीवान,
अब मुझको बस एक उनवान, बनाना है।

‘‘उन्मत्त’’

Monday, November 30, 2009

ओ यादों






व्यक्तिगत रूप से हमें कल यानि कल के पलों से, मायने अपनी यादों से बहुत तकलीफ होती है, याद के चिरपरिचत नियम से भी हमको बहुत शिकायत है कि, कल अच्छी यादें आज में रूलाती हैं, जबकि कल की बुरी यादें आज में चेहरे पर मुस्कान ही लाती हैं। बहुत चाहते हैं कि हम अपने आप को, अपने अच्छे कल से अलग रखें, कल का एक पल भी हमको किसी भी तरह से परेशान न कर पाए लेकिन ऐसा आज तक एक बार भी न हो पाया है हमसे। यादें जब चाहतीं हैं, तब अपने आप को हममें ऐसे उत्पन्न करतीं हैं कि, हमसे कुछ हो ही नहीं पाता है। किसी के भी साथ हो हम, अपने आप को सबसे अलग कर लेने का मन होने लगता हैं उन पलों में, जब कल का पल हमारे साथ आ जाता है। जीवन बेअर्थ और शून्य सा लगता है, ऐसे समय में भावना भी अपनी चरम गति को धारण करके, अवसाद की स्थिति को ऐसे निमंत्रित करती है, कि बस कल के साथ अपने आप को देखना भी हमको नहीं सुहाता है।

कल के साथ सिर्फ बुरे अहसास ही नहीं जुडे़ हैं, कुछ अच्छे पल भी जीवन में हैं, कल में हैं, लेकिन जाने क्यों मन उसी के पीछे भागता है, जहां उसे भागना नहीं चाहिए। कल के कुछ पल स्वयं को गौरान्वित भी महसूस करातें हैं। शायद हमने अपने आप को ऐसा बना लिया है, जिसके अनुसार हमको, हमारा अतीत ज्यादा प्रभावित करता है, वह भी ऐसा अतीत जो अच्छा नहीं है, अतीत की गलतियाँ हमको बहुत याद आती हैं, अतीत जब भी सामने आता है, तब तब यही ख़्याल आता मन में कि, एक बार फिर से वक्त पलट जाए तो, हम अपनी गलतियों को सुधार लें। हमेशा सकारात्मक सोचते हैं, जिससे और भी तकलीफ होती है हमको, क्योंकि आज में हम भविष्य का निर्माण करते हैं और किन्हीं कारणों से अगर भविष्य बिखर जाए, तो वह भविष्य, वर्तमान में अत्यन्त दुःखदायी बन जाया करता है।



दिल न दुखाओ, ओ यादों,
उनको भुलाओ, ओ यादों।

कठिन नहीं है वक्त से लड़ना,
ध्यान लगाओ, ओ यादों।

लौट चुका है, आने वाला,
लौट भी जाओ, ओ यादों।

कितनी दफहें ठोकर खाए हम,
सबक सिखाओं, ओ यादों।

जीवन को है बस चलते जाना,
आवाज़ न लगाओ, ओ यादों।

‘‘उन्मत्त’’ ठहरा तो मर जाएगा,
गुजर भी जाओ, ओ यादों।

‘‘उन्मत्त’’

Saturday, November 28, 2009

सच्चाई




जब किसी को प्रेम होता है तो वह व्यक्त होने के लिए व्याकुल रहता है और अपनी व्याकुलता में वह प्रेम करने वाला कैसे कैसे कार्य करता रहता है, इसका ज्ञान उसको नहीं होता है। किसी भी बात को वह घुमा फिरा कर ऐसे मोड़ता है कि, बात पुनः से प्रेम की चर्चा पर आ जाए या फिर बात को कहीं न कहीं से सीधे सीधे प्रेम से जोड़ दिया जाए। अपनी बात को, अपने भाव को स्वयं न कह कर, प्रेम करने वाला, जिससे प्रेम करना चाहता है उससे कहलवाना और बिना कहे ही उसे कहना चाहता है, उसको बताना चाहता है। ऐसे ऐसे कार्य उसके द्वारा किये जाने लगते है कि, थोड़ी सी भी समझ रखने वाला व्यक्ति समझ जाता है कि, अमुक व्यक्ति क्या चाह रहा है? बावजूद इसके प्रेम की धुन में रहने वाले उस व्यक्ति को, पता भी नहीं होता है, कि वो यह सब कर रहा होता है। शायद यही प्रेम का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है कि, प्रेम करने वाले को पता भी नहीं होता, कि वह अपने प्रेम को हर जगह अभिव्यक्त करता चल रहा है।

प्रेम की अपनी धुन में रहने वाले व्यक्ति के लिए, उनकी स्थिति और उनकी हालत् के लिए हमारी तरह से उन सबहों को, यह रचना, उनके प्रेम की तरह समर्पित है:-



आओ तुमको दिखा दें वो

जिसे तुम सुनना चाहते हो

जो दिखता है मुझे

तुम्हारी ही आँखों में

हमेशा ही छलकता हुआ

कितने नादांन हो तुम

लेके प्यार अपनी आँखों में

ढूढंते हो मेरी आँखों में

कितना अज़ीब है यह

कि

जानते हो जो

वही तो हमसे जानना चाहते हो

आओ दिखा दें तुमको

प्यार हम

जिसे तुम देखना चाहते हो।


‘‘उन्मत्त’’

Thursday, November 26, 2009

वक्त का रूख मोड़ता चल




सामान्यतः व्यक्ति अपने आप को स्वयं ही कष्ट में रखता है, अपने आप को खुद ही उन हालातों में रखना पसन्द रखता है जिनमें वो रहना भी नहीं चाहता है। यह सुनने में अज़ीब लग ज़रूर रहा है, लेकिन सच यही है। किसी अन्य व्यक्ति के जीवन को, उसकी क्रिया प्रतिक्रिया को, बहुत ही आसानी के साथ देखा, सुना और समझा जाता है, अपने जीवन को, अपनी क्रिया प्रतिक्रिया के मुकाबले। इसीलिए किसी अन्य के बारे में अक्सर ही यह कह दिया जाता है या कहा जाता है कि, अमुक की अमुक समस्या, खुद उसके द्वारा ही निर्मित की गयी समस्या है, लेकिन जब कभी ऐसा हम स्वयं करते हैं, तो उस समय इस बात का आभास तक नहीं होता है, कि उस अमुक को भी कुछ ऐसा ही अहसास, आभास हो रहा होता है। जब हम वो सब कर रहे थे, जो वास्तव में नहीं करना चाहिए था।

हमेशा तो ऐसा नहीं होता है, लेकिन ज्यादातर ऐसा होता है कि, हमारा मन ही किसी भी सामान्य सी समस्या को विकराल रूप में विकसित और प्रचारित कर देता है, जिसके कारण ही वह समस्य इतनी जटिल हो जाती है कि, जीवन ही दुष्कर लगने लगता है। क्या वास्तव में ऐसा ही होता है कि, हमारा मन या मस्तिष्क इतना बड़ा काम इतनी आसानी से कर लेता है? कर लेता है, तभी तो यह बात समझ में आती है। हाँ, यह बात और है कि, जब वह वक्त गुजर जाता है, तब लगने लगता है कि, वाकई हमने ही एक छोटी सी बात को किस रूप में विकसित और प्रचारित होने दिया? इस रूप में की अपने आप के लिए ही समस्या हम स्वयं बन गये।

अपने स्तर पर हर प्रयास करते हैं, लेकिन अक्सर हार जाया करते हैं परिस्थितियों के आगे। भूल जाया करते हैं अपने आप से ही किया हुआ वादा।

इन्हीं लम्हों के विरूद्ध, हमको सिर्फ यही कहना है:-


वक्त का रूख मोड़ता चल,
साथ दर्दों का छोड़ता चल।

पावं ही तो नहीं है गमों के,
साथ खुशियों के, दौड़ता चल।

टीस कल की जहां से आती है,
गाँठ उन यादो की, उधेड़ता चल।

अक्श अपना ही न दिखा पाए जो,
बेकार के उन आइनों को, तोड़ता चल।

दे ना पाए जोश, बन जाए जो बोझ,
साथ के बेबात के रिश्ते, छोड़ता चल।

‘‘उन्तत्त’’ एक ही ताल पर थिरक रही है,
ऐसी बेसबब ज़िन्दगी का ध्यान, तोड़ता चल।

‘‘उन्तत्त’’

Sunday, November 22, 2009

कल









कभी कभी अपने आप से या कहें कि अपने ही मन पूछते हैं कि अगर बीता हुआ कल वापस आ सकता तो क्या होता? कई बार तो लगा कि अच्छा होता, कम से कम हम अपनी गलतियों को सुधार तो सकतें लेकिन, तभी मन यह भी कह उठता है कि, सम्भवतः उसमें फेर बदल कर, अपने हित में प्रयोग करना चाहो तब। सच है अगर ऐसा हुआ तो ज्यादातर तो मन डोल ही जाएगा। और अगर मन डोल गया तो उसको सम्भालना मुश्किल हो जाएगा। इतिहास रोज़ के रोज़ बदल जाया करेगें। व्यक्ति स्वयं को ईश्वर से कम नहीं समझेगा, लेकिन बाद उसके भी हमारा अक्सर यह चाह लेता है कि, काश! वक्त की नब्ज़ हमारे हाथों में होती।

ऐसा तो हो नहीं सकता, उससे बढ़कर ऐसा होना ही नहीं चाहिए कि, वक्त की डोर हम लोगों के हाथ में आ जाए। मगर चाहतें हैं कि चाह लेती हैं कि, ऐसा होता तो अच्छा था। इस बारे में नहीं सोचती हैं कि इस बार गलती न करें कि, अगली बार फिर से वक्त को पाने, वक्त को उलटने की चाहत हो। अपने किये हुए को बदलने के लिए, अपने हित में सब कुछ, बिना किसी मेहनत के करने की ललक ही शायद मन से यह चाहत कराती है। लेकिन कभी कभी गलती की नहीं जाती हैं, बस हो जाया करती हैं और सच कहें तो होती भी नहीं हैं, करायी जाती हैं, किसके द्वारा? यह हर व्यक्ति के लिए अलग अलग हो सकता है। व्यक्ति चाहता कुछ है, लेकिन करना कुछ पड़ता है, ऐसे समय के लिए वक़्त को पलटने का अवसर मिलना चाहिए। फिर भी नहीं मिलता है। ईश्वर के अपने कारण है और उचित है, क्योंकि एक अच्छा करने में अगर हजार बुरा हो जाए तो, एक अच्छा करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है और यही उचित व बेहतर नियम है।



बीत चुका है वो कल

फिर भी वहीं खड़ा है

आवाज़ देता रहता है अक्सर

कि

मैं वहीं हूँ

जहाँ था मैं

तुम ही भूल रहे हो मुझे

कहाँ हो आजकल तुम

पूछता है

रह रह के

अहसास कराता है

कि

वक्त बस बीतता है

गुजरता नहीं हैं

ठहर जाता है

उम्र भर के लिए

जीवन में।


"उन्मत्त"

Saturday, November 14, 2009

ऐ वक्त न आया कर








जीवन में कुछ पल ऐसे होते हैं, जो जब भी उभरते हैं, अपरिमित कष्ट ही होता है। मन किसी भी कीमत पर नहीं चाहता है कि, गुजरा हुआ वह पल फिर से आँखों में आए। मगर यह सब रोकना अपने बस में होता ही कहाँ है। सामान्य व्यक्ति में इतना सामर्थ ही नहीं होता है कि, वह अपनी भावनाओं और संवेदनाओं पर अपना नियंत्रण कर सके। विचित्र तो यह होता है, जीवन में जिस वक्त को फिर से याद नहीं करना चाहतें हैं, उन्हीं पलों को फिर से जीने का मन भी करता है, इच्छा यही कहती है कि, काश! कि वह समय फिर से लौट आए और हम फिर से उन्हीं को जीए। लेकिन जब यह इच्छा नहीं पूरी होती है या पूरी नहीं हो सकती है, तब उन्हीं लम्हों को, जो कभी बहुत ही प्यारे थे, जो बहुत ही सुहाने थे, उनको याद नहीं करना चाहते हैं। वक्त या परिस्थिति जब उन्हें दोहराने का प्रयत्न करतीं हैं, तो उनको फिर से जीने का मन नहीं करता है। मन यही करता उन लम्हों में, जब बिन चाहे, बिता हुआ लम्हा आँखों में आ आ कर, जीने की इच्छा को तोड़ता है, जीवन की गति को धीमा बनाता है, कि गुजर जाय जो बीत गया है, लेकिन गुजरा हुआ वो वक्त गुजरता ही नहीं, जाने क्यों?

सही ही कहा गया है कि यादों के नियम ही अज़ीब हैं, कल में जिन लम्हों में रोए थे, वो आज में याद आकर हॅसाते हैं, लेकिन कल में जिन लम्हों में हॅसे थे, आज में वही वक्त आ आ कर रूलाया करते हैं। यादों का अज़ीब नियम यह किसने और क्यों बनाया है? भगवान् को क्या सूझा जो ऐसा काम किया है उसने?

कल रह रह कर जब उभरता है आज में आ कर, तब तब मन ने यही कहा है हमसे:-



मुझसे मिलने, ऐ वक्त न आया कर,
फिर से हॅसने, ऐ वक्त न आया कर।

कुछ पल अपने साथ गुजारने है मुझको,
कल को पलटने, ऐ वक्त न आया कर।

कुछ रखा जाए मान मोहब्बत का भी अब,
बात ये कहने, ऐ वक्त न आया कर।

बहुत हूँ तन्हा, लोगों में रह रह कर,
ये साबित करने, ऐ वक्त न आया कर।

मेरा वज़ूद बाकी ही है कितना अब,
हमसे यह सुनने, ऐ वक्त न आया कर।

‘‘उन्मत्त’’ छोड़ दूँ तुमको खुला कैसे,
मुझसे लड़ने, ऐ वक्त न आया कर।

‘‘उन्मत्त’’


Tuesday, November 10, 2009

रोज़ रात








यूँ ही घूमते हुए एक दिन हमारे साथ यही घटना घटी, तभी हमारे मन में ख़्याल आया कि वास्तव में यही होता है। जीवन में ऐसे ही बहुत काम होते हैं, जिन्हें करने का कोई इरादा नहीं होता, कोई इच्छा नहीं होती है, फिर करना पड़ता है। और हम लोग उसे चाहे अनचाहे उसे करते हैं। हम रोज़ रात घूमने निकलते थे, लेकिन यह बात 06.06.2009 को समझ में आयी, जब हमने अपनी परछाई को रौंदा। तब हर रात हम यही तमाशा देखा करते हैं खुद को करते हुए यह सब जानते हुए और लोगों को देखते हैं यह सब करते हुए अनजाने में। हॅसी आती है अपने आप पर कि क्या हुआ अगर हम यह सब जानते हैं? उन्हीं ही की तरह तो हम भी हैं जो यह नहीं जानते हैं। जिन्हें जानकारी नहीं हैं, उनको चिन्ता नहीं है, सूकून है, हमारी तरह यह तो रोज़ नहीं सोचते हैं।



मैं रोज़ रात को
टहलने निकलता हूँ
कुछ दूर घर से मेरे
मेरे मोहल्ले का चैराहा है
जहां ऊंचे एक खम्भे पर
बल्लों का गुच्छा रखा है
जिसका उजाला खुद को
सूरज के उजालों से कम नहीं आंकता
उसी उजाले में मुझे
अपनी ढेरों परछाईया दिखती हैं
इधर उधर भटकती हुयीं
साथ मेरे चलती हुयीं
मेरे ख़्वाबों की तरह
मेरे ख़्यालों की तरह
और मैं जैसे
अपनी उन परछाईयों को
न चाहते हुए भी
जानते समझते हुए भी
रौंद कर आगे बढ़ जाता हूँ
ऐसे ही कुचल उठते हैं
हर रोज़
ख़्वाब ज़िन्दगी के
मुझसे ही
न चाहते हुए भी
तोड़ना पड़ता है
ख़्वाब ज़िन्दगी का
और मैं कुछ नहीं कर पाता
अज़ीब है यह सब
मगर
यही तो ज़िन्दगी है शायद।


‘उन्मत्त’

Monday, November 9, 2009

झूठा ठहरा





जीवन में कई बार ऐसे भी क्षण आ जातें हैं, जहां आप सच्चे होते हैं, सही होते है, बेगुनाह होते हैं, लेकिन परिस्थितियों का ऐसा ताना बाना बुना हुआ होता है कि, आपके लाख चाहने पर भी उस उससे अलग नहीं हो सकते हैं और आप गलत हो जाएगें, झूठे हो जाएगें, गुनाहगार हो जाएगें। परिस्थितियों ने अगर आपको दोषी बना दिया तो, मुश्किल ही है कि, आप अपनी बातों के माध्यम से उसे सही साबित कर सकें। ऐसे समय पर फिर तमाम प्रयत्न बेअर्थ हो जातें हैं। उन अपराधों को स्वीकार करना पडता है जो आपने नहीं किये होते हैं या फिर उस रिश्ते को खोया जाए, जिसे खोना सहा नहीं जाया जा सकता है। मगर परिस्थितियों पर न ही वश चलता है और न ही उनको किसी हाल या सूरत में बदला जा सकता है। बदला तो आने वाला समय बदला जा सकता है या उसको बदले का प्रयास आज में किया जा सकता है, लेकिन जो गुजर गया है, उसको किसी हाल नहीं बदला जाया जा सकता है। बस सब कुछ देखते रहना होता है और यही करना भी पड़ता है और करतें हैं भी हम सभी।

ऐसे ही पलों के लिए, एक पल में हमारे अंतर्मन ने गुनगुनाया है:-


अहद् निभाया, झूठा ठहरा,
लौट न पाया, झूठा ठहरा।

पल पल तो उनको सोचा,
बही न लाया, झूठा ठहरा।

हममें भी कमियां हैं कईं,
खोज न पाया, झूठा ठहरा।

दीवानों से अब घर भर आया,
उनवान न लाया, झूठा ठहरा।

दिल मज़बूर है ज़ज्बातों के हाथों,
सच न बताया, झूठा ठहरा।

दौड़ रहा था वक्त उनके घर,
मैं चल न पाया, झूठा ठहरा।

‘‘उन्मत्त’’ लड़ के अना ही होती,
खुद को हराया, झूठा ठहरा।

‘‘उन्मत्त’’

उनवान = र्शीषक
अना = दुःख
दीवान = ग़ज़लों की किताब

Friday, November 6, 2009

ऐसा भी हो सकता है





कभी कभी जीवन में ऐसे लम्हें आ खड़े होते हैं, जब यह तय ही नहीं हो पाता है कि जो हो रहा है वह सही है या नहीं। साथ ही उस समय इस बात पर भी बार बार हर बार मन यह प्रश्न खड़ा करता रहता है, कि जो करने की सोच रहे हो, एक बार पुनः सोच लो कि, जो सोच रहे हो वह सही है कि नहीं। मन उकता जा है ऐसे लम्हों में रहते रहते, लेकिन ऐसे लम्हों से बचा भी नहीं जाया जा सकता है। कितना भी अपने आप को उससे दूर रखने का प्रयास किया जाए, मगर मन स्वयं ही नहीं मानता है। दौड़ दौड़ कर वहीं पहुच जाया करता है। अजब है जीवन और शायद अजब ही रहेगा हमेषा। समझ से परे होता है ज्यादातर जीवन के ऐसे पल।

ऐसे ही लम्हों में मन ने यही कहा करता है अक्सर:-

कुछ न मुकद्दर में हो, ऐसा भी हो सकता है,
बस एक दर्द ही हमदर्द हो, ऐसा भी हो सकता है।

कितनों को गिनोगे कि जो हैं खि़लाफ तुम्हारे,
खुद का ज़मीर भी हो, ऐसा भी हो सकता है।

जो टूट के बिखर गया वो दिल उसका ही था,
दर्द उसमें मगर तुम्हारा हो, ऐसा भी हो सकता है।

मेरी आवाज़ पर आया तो क्या आया वो हमदम,
महसूस करके मुझे आया हो, ऐसा भी हो सकता है।

नाकाम न कह, नाउम्मीद है जो ज़िन्दगी से अभी,
एक दिन वक्त उन्हीं का जाएगा हो, ऐसा भी हो सकता है।

‘‘उन्मत्त’’ शायद सब कुछ हासिल भी होगा एक दिन,
ज़रूरत मगर तब न हो, ऐसा भी हो सकता है।

‘‘उन्मत्त’’

Saturday, October 31, 2009

तो समझना मैं हूँ





प्यार करने वालों के लिए हमेशा एक ही धुन रहती है कि जिन्हें वो चाहतें हैं, हर पल, हर लम्हा वो उनके सामने हो, साथ हो। मगर यह होना सम्भव ही नहीं है। तमाम कारणों से ऐसा नहीं हो सकता है कि, जिसे चाहतें हों वो हमेशा ही साथ रहे। कुछ ऐसे पलों के लिए अपनी रचना उद्धरित कर रहें हैं हम। जिन लम्हों में आप अपने साथी के साथ न होने के, उन लम्हों में शायद आपको, अपने प्रिय के होने का अहसास करा सके। यही हमारा ध्येय है, यही इस रचना का मूल उद्देश्य है, इस रचना का मूल सार है:-




हवाएं गुजरते हुए जब कुछ कह के जाए, तो समझना मैं हूँ,
किसी बात पर अश्क छलक आए, तो समझना मैं हूँ।


चलते हुए सड़कों पर या छत, आँगन में बैठे हुए कहीं,
सावन की बूंदे भिगो जाए, तो समझना मैं हूँ।


चिलमिलाती धूप में कहीं दूर दूर तक शामियाना न हो,
कहीं किसी सूखे पेड़ से छाव आए, तो समझना मैं हूँ।


सिकुड़ रहा हो हर इन्सान जहां ठण्ड से बेहाल होके,
और सर्द हवाओं की गर्मी सहलाए, तो समझना मैं हूँ।


फूल गिरे न गिरे राहों में तुम्हारी, कभी भी मगर,
सूखे पत्ते पतझड़ों के बिछ जाए, तो समझना मैं हूँ।


यूँ तो हर लम्हा, हर सांस में मौजूद रहूंगा मैं,
‘‘उन्मत्त’’ कभी जब नज़र न आए, तो समझना मैं हूँ।


‘‘उन्मत्त’’




Thursday, October 29, 2009

प्रश्न





इस श्रृंखला में लेखन की शुरुआत करने से पहले हम कुछ बातें स्पष्ट करना चाहतें हैं, आगे हम अपने लिए हम का ही प्रयोग करेगें। व्याकरण की दृष्टि से यह गलत है, उसके बाद भी हम, हम का ही प्रयोग करेगें। ‘‘मैं’’ का प्रयोग हम अपने लिए नहीं करते हैं कभी कभी, बोलचाल में भी हम मैं का प्रयोग नहीं करते हैं। क्योंकि ‘‘मैं’’ हमको अहम् का सूचक जान पड़ता है, इसलिए हम उससे परे ही रहते है। इस धृष्टता के लिए हम आप सभी से मांफी माँगते हैं और उम्मीद करते हैं कि आप हमको क्षमा करने का प्रयास करेगें।

बहुत कुछ ऐसा होता रहता है जीवन में, जो इच्छा के विरूद्ध होता है। और हमें वह सब उसी रूप में स्वीकार भी करना होता है, क्योंकि स्वीकार करने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं होता है हम सबके पास। हमारी समझ में आज तक नहीं आया कि जीवन क्या है? वो जो हम जी रहे होते हैं या फिर वो जो हम जीना चाहतें हैं। इच्छाओं के विरूद्ध जीने को जीना तो नहीं ही कहा जा सकता है। फिर भी कहा जाता है। यह किसी आर्श्चय से कम नहीं कि जो न चाहते हों, उसे ही उसी हाल में स्वीकार करना पड़ता है। इच्छाओं के विरूद्ध जीने को जीना कहतें है, जीवन कहते हैं, उनको हम कोटि कोटि वन्दन है।

वास्तव में ज़िन्दगी है क्या?

इस प्रश्न के उत्तर में जाने कितना समय हमने दिया है? मगर कभी भी समझ नहीं पाए हम कि आखि़रकार ज़िन्दगी को किस तरह परिभाषित करें। जिस तरह से जिया जाता है सामान्यतः, यकीनन उसे तो ज़िन्दगी का नाम नहीं दिया जा सकता है, अगर हम अपने दृष्टिकोण से कहें तो। सिर्फ रूपये और अपने आप के अलावा (अपने आप में, अपने शामिल है, जो कि बस चन्द लोग होते हैं) किसी को कुछ सूझता ही नहीं। जिनके पास ढेरों रूपया है, उनको और भी ज्यादा की इच्छा है, और जिनके पास है ही नहीं, उनके बारे में तो समझा ही जा सकता है कि उनको तो दो जून की रोटी भी बडी मुश्किल से मिल पाती है, ऐसे में वो क्या सोचें।

अगर यही ज़िन्दगी है तो, शायद यह सही नहीं है। क्योंकि यकीनन ज़िन्दगी यह नहीं होती है, कि किसी के पास खोने के लिए कुछ हो ही न और किसी के पास खोना शुरू हो भी तो उम्र बीत जाए। ये तो बाहर से दिखने वाली बात है कि अमुक के पास इतना रूपया है, सारी सुख सुविधा उपलब्ध है, तो मात्र यह सब होने से ही ज़िन्दगी में सब कुछ नहीं मिल जाता है। हो सकता है जिनके पास इतना कुछ हो, वो भी परेषान हों। उन्हें भी किसी बात की तकलीफ हो।

क्या मेरी मदद कर सकता है कोई, इस ज़िन्दगी को समझाने में। सालों से परेशान हैं इस तरह के प्रश्न से हम। जिसने वास्तव में मुझे खाली कर दिया है, मानसिक रूप से कंगाल बना दिया है। कुछ सोच पाने में पूर्णरूप से अक्षम हो चुके है इस बारे में। ज़िन्दगी के संबंध में, यदि मुझे कुछ नए दृष्टिकोण दिये जाए तो हम आभारी होगें आप सब के।

कुछ लोगों की लाइनों को उद्धरित कर रहें है जिन्दगी के सम्बन्ध में :-

निदा फ़ाजली साहब की ये लाइनें ज़िन्दगी की उस हकीकत को बयान करती हैं जिसे हम में से ज्यादातर अपनाने में हिचकिचाते हैं -

‘‘ यही है ज़िन्दगी, कुछ खाक चंद उम्मीदें,
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो।’’

अहमद नदीम ने तो ज़िन्दगी को नया रूख ही दे दिया है, और वास्तव में यही होना भी चाहिए कि -

‘‘ज़िन्दगी शमां की मानिन्द जलाता हूँ ‘नदीम’,
बुझ जाऊंगा मगर सुबह तो कर जाऊंगा।’’

या फिर इन पंक्तियों में ज़िन्दगी को अपने पर हावी न होने देने की जो कोशिश है उसको अपनी ज़िन्दगी में आत्मसात करने की कोशिश करनी चाहिए-

‘‘ज़िन्दगी तुमसे हर एक सांस पर समझौता करूँ,
शौक जीने का है मुझको, मगर इतना तो नहीं।’’

क़मर ज़लालाबादी का दर्द अपने लिए नहीं, उन अपनों के लिए है जो हमसे और आपसे जुडे होते हैं, जब हम नहीं होते हैं तो -

‘‘मेरे खुदा मुझको थोडी सी ज़िन्दगी दे दे,
उदास मेरे ज़नाज़े से जा रहा है कोई।’’

और आखिर में कुछ मिला जुला हुआ, मगर सच ज़िन्दगी का और सच भी ऐसा जो वास्तव में बहुत कडुवा है -

‘‘पैगाम ज़िन्दगी ने दिया मौत का मुझे,
मरने के इन्तजार में जीना पडा मुझे।’’

‘‘ज़िन्दगी अपने कब्ज़े में, न अपने बस में मौत,
आदमी मज़बूर है और किस कदर मज़बूर है।’’

‘‘ ज़िन्दगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह कटी है,
जाने किस जु़ल्म की पायी है सजा याद नहीं।’’

जब्र-ए-मुसलसल = लगातार संघर्ष

दोस्तों, हम इंतज़ार करेगें आप सब के इस ज़िन्दगी के संबंध प्रतिक्रिया जरूर मिलेगी, यकीनन कुछ न कुछ तो आप के मन में भी होगा ही। ज़िन्दगी से जुडा हुआ, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। जरूरी नहीं कि तुरन्त ही इसकी प्रतिक्रिया दी जाए। आराम से ज़िन्दगी के सोचिए, जानिए, समझिये, उसका विश्लेषण करिए तब प्रतिक्रिया दीजिए, मगर इस पर प्रतिक्रिया जरूर चाहेगें।

Wednesday, October 28, 2009

सुस्वागतम्








आपका हार्दिक स्वागत है हमारे इस ब्लाग पर। हमको अपार खुशी है कि आपने अपना कीमती समय हमको दिया है और हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आपको अपने कीमती समय के लिए किसी तरह का पछतावा नहीं होगा। अगर हमारे लेख आपको बहुत अच्छे नहीं लगेगें, तो किसी भी स्तर पर शायद खराब भी न लगेगें, ऐसी उम्मीद हमको अपने आप से है।

एक मुलाकात




एक मुलाकात



मुझे रात भर
जागते देख
एक दिन आख़िर
थक कर
हार कर
गुज़री रात
भगवान
मुझसे मिलने
ही गए
न हाल पूछा मेरा
न अपना हाल पूछने का
एक मौका दिया
साफ शब्दों में कहा
कि
कह आज
जो कहना है
कह दे उसे
जो दिल में है तेरे
जो दिमाग में है तेरे
मैं
उन्हें देखता रहा
कुछ सोचता रहा
शायद उन्होंने
आवाज़ भी दी थी
और
मैं
कहीं खोया था
फिर
उन्होंने आवाज़ दी
साथ ही
कान्धों से पकड़
मुझे हिलाया भी
मैं
कसमसाया
सोच से जागना चाहा
मगर
जाग न पाया
फिर
बिन जाने
कि
ख़्याल मुझ पर
अब भी
हावी है
उन्होंने फिर कहा
कह
देख
मैं आ गया
क्या है
तुझमें चलता रहता
कुछ तो कह
कुछ तो है ही तुममें
मैं
अब जाग चुका था
हर ओर सन्नाटा था
क्योंकि,
क्योंकि
सिर्फ दो
और
सिर्फ दो लोग थे
उस सन्नाटें में
जागते हुए
एक सुनता हुआ
एक कहता हुआ
कहता भी क्या
मैं
मगर
कहा जा रहा था
मुझसे
लगातार
कहने के लिए
अन्ततः
मैंने तय किया
कहना शुरू किया



------------------

कि
क्या कहू
क्या छुपा है आपसे
जो घटा है
उससे अनभिज्ञ नहीं आप
जो घट रहा है
उससे भी अनभिज्ञ नहीं आप
क्या है मन में
क्या है मस्तिष्क में
कुछ भी
कभी भी
छिपा नहीं है आपसे
फिर
फिर क्यों
यह औपचारिका क्यों
आवेग हावी हो रहा था
मुझ पर
क्रोध शिकंजा कस रहा था
मुझ पर
वो शान्त थे
मुस्कराता हुए
जाने किस पर
मुझ पर
या
मेरी बात पर
मगर
शान्त थे वो
बस
एक मौके की तलाश में
कि
उन्हें मौका मिले
बोलने का
आख़िर
वह नियंता था
वह निर्माता था
उसने मौका तलाशा नहीं
अपितु
निर्मित कर लिया



-------------------

उन्होंने कहा
यह समय की मांग है
कि
माँगा जाए
तो
दिया जाए
पूछा जाए
तो
कहा जाए
जो माहौल है
जो परिवेश है
उसकी यही रीति है
उसका यही नियम है
और
नियमों का पालन
करना
और
कराना
मेरा कर्म व धर्म है
अब मेरा आवेग
मुझसे हाथ छुड़ा रहा था
मेरा क्रोध मुझे
धोखा देने जा रहा था
अब मैं
शान्त था
वह वक्ता थे
मैं
श्रोता था
फिर
कुछ लम्हें में
सब कुछ
शान्त हो गया
मैं
था ही
वह भी
हो गये
उसकी आँख
कुछ कह रही थी
कुछ जबाव
मुझसे चाह रही थी
मैंने भी उत्तर दिया
उनको
उनकी की भाषा में
खामोश रह के
शान्त रह के
मात्र
आंखों से

---------------

कि
जाइए
निश्चिंत होकर
जाइए
कुछ नहीं चाहिए मुझे
आपका नियम होगा
मांगे जाने पर
दिया जाना
और
आपका ही नियम है
समय आने पर
दिया जाना
और
अगर
मुझे
मिलने का समय है
तो
मिल कर रहेगा
और
अगर
समय नहीं है
मिलने का
तो
चाह कर भी
नियमों का उल्लघन
आप न करेगें
इसलिए
जाइए
कि
नियमों का पालन हो
इसलिए
जाइए
कि
नियमों का पालन करना है
इसलिए
जाइए
कि
सब कुछ नियमतः हो सके
इसलिए
जाइए
कि
जीवन चक्र न टूटे
इसलिए
जाइए
कि
मैं न टूटे
मेरे सब्र का बाँध न टूटे
वह
सुनते रहे
खामोशी से
मेरी
आंखों का हर उत्तर
शान्त रह कर
वो भी चाहते थे
उनकी आँखें भी
चाह रही थी
कुछ कहना
और
शायद
कह भी रही थी
मगर
स्पष्ट
कुछ नहीं था
वह उदास
मगर
निश्चिंत होकर
उठे तो
मेरे करीब आने के लिए
मगर
जाने क्यों
आ नहीं पाए
चला गयें वो
मुझको ही देखते
उल्टे पाँव
जैसे
मैं
मन्दिरों से
उन्हें पीठ दिखाए बगैर
मन्दिर से बाहर आता हूँ
एक पल में
ओझल हो गयें वो
आंखों से
रात
अब भी पसरी थी
सन्नाटा
अब भी कायम था
सोच
अब भी ज़िन्दा थी
नींद
अब भी खोयी थी
बावजूद
इसके
कुछ कहीं बदल जाने की
उम्मीद थी
एक
विशवास था
कि
समय
मेरा भी होगा
कभी।







‘उन्मत्त’