Saturday, October 31, 2009

तो समझना मैं हूँ





प्यार करने वालों के लिए हमेशा एक ही धुन रहती है कि जिन्हें वो चाहतें हैं, हर पल, हर लम्हा वो उनके सामने हो, साथ हो। मगर यह होना सम्भव ही नहीं है। तमाम कारणों से ऐसा नहीं हो सकता है कि, जिसे चाहतें हों वो हमेशा ही साथ रहे। कुछ ऐसे पलों के लिए अपनी रचना उद्धरित कर रहें हैं हम। जिन लम्हों में आप अपने साथी के साथ न होने के, उन लम्हों में शायद आपको, अपने प्रिय के होने का अहसास करा सके। यही हमारा ध्येय है, यही इस रचना का मूल उद्देश्य है, इस रचना का मूल सार है:-




हवाएं गुजरते हुए जब कुछ कह के जाए, तो समझना मैं हूँ,
किसी बात पर अश्क छलक आए, तो समझना मैं हूँ।


चलते हुए सड़कों पर या छत, आँगन में बैठे हुए कहीं,
सावन की बूंदे भिगो जाए, तो समझना मैं हूँ।


चिलमिलाती धूप में कहीं दूर दूर तक शामियाना न हो,
कहीं किसी सूखे पेड़ से छाव आए, तो समझना मैं हूँ।


सिकुड़ रहा हो हर इन्सान जहां ठण्ड से बेहाल होके,
और सर्द हवाओं की गर्मी सहलाए, तो समझना मैं हूँ।


फूल गिरे न गिरे राहों में तुम्हारी, कभी भी मगर,
सूखे पत्ते पतझड़ों के बिछ जाए, तो समझना मैं हूँ।


यूँ तो हर लम्हा, हर सांस में मौजूद रहूंगा मैं,
‘‘उन्मत्त’’ कभी जब नज़र न आए, तो समझना मैं हूँ।


‘‘उन्मत्त’’




Thursday, October 29, 2009

प्रश्न





इस श्रृंखला में लेखन की शुरुआत करने से पहले हम कुछ बातें स्पष्ट करना चाहतें हैं, आगे हम अपने लिए हम का ही प्रयोग करेगें। व्याकरण की दृष्टि से यह गलत है, उसके बाद भी हम, हम का ही प्रयोग करेगें। ‘‘मैं’’ का प्रयोग हम अपने लिए नहीं करते हैं कभी कभी, बोलचाल में भी हम मैं का प्रयोग नहीं करते हैं। क्योंकि ‘‘मैं’’ हमको अहम् का सूचक जान पड़ता है, इसलिए हम उससे परे ही रहते है। इस धृष्टता के लिए हम आप सभी से मांफी माँगते हैं और उम्मीद करते हैं कि आप हमको क्षमा करने का प्रयास करेगें।

बहुत कुछ ऐसा होता रहता है जीवन में, जो इच्छा के विरूद्ध होता है। और हमें वह सब उसी रूप में स्वीकार भी करना होता है, क्योंकि स्वीकार करने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं होता है हम सबके पास। हमारी समझ में आज तक नहीं आया कि जीवन क्या है? वो जो हम जी रहे होते हैं या फिर वो जो हम जीना चाहतें हैं। इच्छाओं के विरूद्ध जीने को जीना तो नहीं ही कहा जा सकता है। फिर भी कहा जाता है। यह किसी आर्श्चय से कम नहीं कि जो न चाहते हों, उसे ही उसी हाल में स्वीकार करना पड़ता है। इच्छाओं के विरूद्ध जीने को जीना कहतें है, जीवन कहते हैं, उनको हम कोटि कोटि वन्दन है।

वास्तव में ज़िन्दगी है क्या?

इस प्रश्न के उत्तर में जाने कितना समय हमने दिया है? मगर कभी भी समझ नहीं पाए हम कि आखि़रकार ज़िन्दगी को किस तरह परिभाषित करें। जिस तरह से जिया जाता है सामान्यतः, यकीनन उसे तो ज़िन्दगी का नाम नहीं दिया जा सकता है, अगर हम अपने दृष्टिकोण से कहें तो। सिर्फ रूपये और अपने आप के अलावा (अपने आप में, अपने शामिल है, जो कि बस चन्द लोग होते हैं) किसी को कुछ सूझता ही नहीं। जिनके पास ढेरों रूपया है, उनको और भी ज्यादा की इच्छा है, और जिनके पास है ही नहीं, उनके बारे में तो समझा ही जा सकता है कि उनको तो दो जून की रोटी भी बडी मुश्किल से मिल पाती है, ऐसे में वो क्या सोचें।

अगर यही ज़िन्दगी है तो, शायद यह सही नहीं है। क्योंकि यकीनन ज़िन्दगी यह नहीं होती है, कि किसी के पास खोने के लिए कुछ हो ही न और किसी के पास खोना शुरू हो भी तो उम्र बीत जाए। ये तो बाहर से दिखने वाली बात है कि अमुक के पास इतना रूपया है, सारी सुख सुविधा उपलब्ध है, तो मात्र यह सब होने से ही ज़िन्दगी में सब कुछ नहीं मिल जाता है। हो सकता है जिनके पास इतना कुछ हो, वो भी परेषान हों। उन्हें भी किसी बात की तकलीफ हो।

क्या मेरी मदद कर सकता है कोई, इस ज़िन्दगी को समझाने में। सालों से परेशान हैं इस तरह के प्रश्न से हम। जिसने वास्तव में मुझे खाली कर दिया है, मानसिक रूप से कंगाल बना दिया है। कुछ सोच पाने में पूर्णरूप से अक्षम हो चुके है इस बारे में। ज़िन्दगी के संबंध में, यदि मुझे कुछ नए दृष्टिकोण दिये जाए तो हम आभारी होगें आप सब के।

कुछ लोगों की लाइनों को उद्धरित कर रहें है जिन्दगी के सम्बन्ध में :-

निदा फ़ाजली साहब की ये लाइनें ज़िन्दगी की उस हकीकत को बयान करती हैं जिसे हम में से ज्यादातर अपनाने में हिचकिचाते हैं -

‘‘ यही है ज़िन्दगी, कुछ खाक चंद उम्मीदें,
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो।’’

अहमद नदीम ने तो ज़िन्दगी को नया रूख ही दे दिया है, और वास्तव में यही होना भी चाहिए कि -

‘‘ज़िन्दगी शमां की मानिन्द जलाता हूँ ‘नदीम’,
बुझ जाऊंगा मगर सुबह तो कर जाऊंगा।’’

या फिर इन पंक्तियों में ज़िन्दगी को अपने पर हावी न होने देने की जो कोशिश है उसको अपनी ज़िन्दगी में आत्मसात करने की कोशिश करनी चाहिए-

‘‘ज़िन्दगी तुमसे हर एक सांस पर समझौता करूँ,
शौक जीने का है मुझको, मगर इतना तो नहीं।’’

क़मर ज़लालाबादी का दर्द अपने लिए नहीं, उन अपनों के लिए है जो हमसे और आपसे जुडे होते हैं, जब हम नहीं होते हैं तो -

‘‘मेरे खुदा मुझको थोडी सी ज़िन्दगी दे दे,
उदास मेरे ज़नाज़े से जा रहा है कोई।’’

और आखिर में कुछ मिला जुला हुआ, मगर सच ज़िन्दगी का और सच भी ऐसा जो वास्तव में बहुत कडुवा है -

‘‘पैगाम ज़िन्दगी ने दिया मौत का मुझे,
मरने के इन्तजार में जीना पडा मुझे।’’

‘‘ज़िन्दगी अपने कब्ज़े में, न अपने बस में मौत,
आदमी मज़बूर है और किस कदर मज़बूर है।’’

‘‘ ज़िन्दगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह कटी है,
जाने किस जु़ल्म की पायी है सजा याद नहीं।’’

जब्र-ए-मुसलसल = लगातार संघर्ष

दोस्तों, हम इंतज़ार करेगें आप सब के इस ज़िन्दगी के संबंध प्रतिक्रिया जरूर मिलेगी, यकीनन कुछ न कुछ तो आप के मन में भी होगा ही। ज़िन्दगी से जुडा हुआ, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। जरूरी नहीं कि तुरन्त ही इसकी प्रतिक्रिया दी जाए। आराम से ज़िन्दगी के सोचिए, जानिए, समझिये, उसका विश्लेषण करिए तब प्रतिक्रिया दीजिए, मगर इस पर प्रतिक्रिया जरूर चाहेगें।

Wednesday, October 28, 2009

सुस्वागतम्








आपका हार्दिक स्वागत है हमारे इस ब्लाग पर। हमको अपार खुशी है कि आपने अपना कीमती समय हमको दिया है और हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आपको अपने कीमती समय के लिए किसी तरह का पछतावा नहीं होगा। अगर हमारे लेख आपको बहुत अच्छे नहीं लगेगें, तो किसी भी स्तर पर शायद खराब भी न लगेगें, ऐसी उम्मीद हमको अपने आप से है।

एक मुलाकात




एक मुलाकात



मुझे रात भर
जागते देख
एक दिन आख़िर
थक कर
हार कर
गुज़री रात
भगवान
मुझसे मिलने
ही गए
न हाल पूछा मेरा
न अपना हाल पूछने का
एक मौका दिया
साफ शब्दों में कहा
कि
कह आज
जो कहना है
कह दे उसे
जो दिल में है तेरे
जो दिमाग में है तेरे
मैं
उन्हें देखता रहा
कुछ सोचता रहा
शायद उन्होंने
आवाज़ भी दी थी
और
मैं
कहीं खोया था
फिर
उन्होंने आवाज़ दी
साथ ही
कान्धों से पकड़
मुझे हिलाया भी
मैं
कसमसाया
सोच से जागना चाहा
मगर
जाग न पाया
फिर
बिन जाने
कि
ख़्याल मुझ पर
अब भी
हावी है
उन्होंने फिर कहा
कह
देख
मैं आ गया
क्या है
तुझमें चलता रहता
कुछ तो कह
कुछ तो है ही तुममें
मैं
अब जाग चुका था
हर ओर सन्नाटा था
क्योंकि,
क्योंकि
सिर्फ दो
और
सिर्फ दो लोग थे
उस सन्नाटें में
जागते हुए
एक सुनता हुआ
एक कहता हुआ
कहता भी क्या
मैं
मगर
कहा जा रहा था
मुझसे
लगातार
कहने के लिए
अन्ततः
मैंने तय किया
कहना शुरू किया



------------------

कि
क्या कहू
क्या छुपा है आपसे
जो घटा है
उससे अनभिज्ञ नहीं आप
जो घट रहा है
उससे भी अनभिज्ञ नहीं आप
क्या है मन में
क्या है मस्तिष्क में
कुछ भी
कभी भी
छिपा नहीं है आपसे
फिर
फिर क्यों
यह औपचारिका क्यों
आवेग हावी हो रहा था
मुझ पर
क्रोध शिकंजा कस रहा था
मुझ पर
वो शान्त थे
मुस्कराता हुए
जाने किस पर
मुझ पर
या
मेरी बात पर
मगर
शान्त थे वो
बस
एक मौके की तलाश में
कि
उन्हें मौका मिले
बोलने का
आख़िर
वह नियंता था
वह निर्माता था
उसने मौका तलाशा नहीं
अपितु
निर्मित कर लिया



-------------------

उन्होंने कहा
यह समय की मांग है
कि
माँगा जाए
तो
दिया जाए
पूछा जाए
तो
कहा जाए
जो माहौल है
जो परिवेश है
उसकी यही रीति है
उसका यही नियम है
और
नियमों का पालन
करना
और
कराना
मेरा कर्म व धर्म है
अब मेरा आवेग
मुझसे हाथ छुड़ा रहा था
मेरा क्रोध मुझे
धोखा देने जा रहा था
अब मैं
शान्त था
वह वक्ता थे
मैं
श्रोता था
फिर
कुछ लम्हें में
सब कुछ
शान्त हो गया
मैं
था ही
वह भी
हो गये
उसकी आँख
कुछ कह रही थी
कुछ जबाव
मुझसे चाह रही थी
मैंने भी उत्तर दिया
उनको
उनकी की भाषा में
खामोश रह के
शान्त रह के
मात्र
आंखों से

---------------

कि
जाइए
निश्चिंत होकर
जाइए
कुछ नहीं चाहिए मुझे
आपका नियम होगा
मांगे जाने पर
दिया जाना
और
आपका ही नियम है
समय आने पर
दिया जाना
और
अगर
मुझे
मिलने का समय है
तो
मिल कर रहेगा
और
अगर
समय नहीं है
मिलने का
तो
चाह कर भी
नियमों का उल्लघन
आप न करेगें
इसलिए
जाइए
कि
नियमों का पालन हो
इसलिए
जाइए
कि
नियमों का पालन करना है
इसलिए
जाइए
कि
सब कुछ नियमतः हो सके
इसलिए
जाइए
कि
जीवन चक्र न टूटे
इसलिए
जाइए
कि
मैं न टूटे
मेरे सब्र का बाँध न टूटे
वह
सुनते रहे
खामोशी से
मेरी
आंखों का हर उत्तर
शान्त रह कर
वो भी चाहते थे
उनकी आँखें भी
चाह रही थी
कुछ कहना
और
शायद
कह भी रही थी
मगर
स्पष्ट
कुछ नहीं था
वह उदास
मगर
निश्चिंत होकर
उठे तो
मेरे करीब आने के लिए
मगर
जाने क्यों
आ नहीं पाए
चला गयें वो
मुझको ही देखते
उल्टे पाँव
जैसे
मैं
मन्दिरों से
उन्हें पीठ दिखाए बगैर
मन्दिर से बाहर आता हूँ
एक पल में
ओझल हो गयें वो
आंखों से
रात
अब भी पसरी थी
सन्नाटा
अब भी कायम था
सोच
अब भी ज़िन्दा थी
नींद
अब भी खोयी थी
बावजूद
इसके
कुछ कहीं बदल जाने की
उम्मीद थी
एक
विशवास था
कि
समय
मेरा भी होगा
कभी।







‘उन्मत्त’