Wednesday, December 30, 2009

वर्ष नव, हर्ष नव, जीवन उत्कर्ष नव।








आयने ते परायणे दुर्वा रोहन्तु पुष्पिणीः ।
हृदाष्च पुण्डरीकाणि समुदस्य गृहा इमे ।।



ऋग्वेद - 18/30/16



अर्थात्




आपके मार्ग प्रशस्त हों,
उन पर पुष्प हों, नयी कोमल दूब हों,
आपके उद्यम व आपके प्रयास सफल हों,
सुखदायी हों और आपके जीवन सरोवर में
मन को प्रफुल्लित करने वाले कमल खिलें हों।



नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये, इस आशय और अटल विश्वाश के साथ कि, इस नव वर्ष में आपकी प्रत्येक इच्छा, प्रत्येक स्वप्न, प्रत्येक कामनाओं की पूर्ति जल्द से जल्द हो।

जीवन के किसी भी मोड़ पर, कभी भी किसी भी मुश्किल से आपका सामना न हो।

जीवन के प्रत्येक क्षण में, आपके चेहरे पर विजय की मुस्कान और माथे पर विजयश्री का तिलक सदैव ही जगमगाता रहे।

किसको कह दूँ









आज सिर्फ इतना ही कहना है कि, अपनी एक पुरानी रचना निगाह में आ गई, क्यों और किस बात इस रचना का जन्म हुआ, यह आज हमको याद नहीं, लेकिन बस अच्छी लगी आज तो हमने इसको आपके साथ बांटने की सोची और उसी सोच का नतीज़ा है कि, यह बस आप सब के लिए:----


तुमसे बेहतर फिर अब मैं किसको कह दूँ,
अपना कहके तुमको अपना किसको कह दूँ।

यारों ने कोशिश की, कि भूलें तुमको,
तुम मैं ही हूँ अब, किसको कह दूँ।

उनकी अपनी भी कुछ चाहत होगी,
अपनी ही मर्जी सारी, किसको कह दूँ।

हर दिल की ख़्वाहिश है एक साथी,
कम मिलेगें सच्चे, किसको कह दूँ।

जीने को साँसों की ज़रूरत ही कहाँ रही,
चाहतें ही रखे हैं ज़िन्दा, किसको कह दूँ।

‘‘उन्मत्त’’ आज़मा के तोहमत देते हमको,
बेबात ही बदनाम हूँ, किसको कह दूँ।



‘‘उन्मत्त’’

Tuesday, December 29, 2009

ठीक नहीं





ज्यादातर व्यक्ति किसी भी कृत्य के लिए अपने को दोष देकर के मुक्ति पाना चाहता है, चाहे उसने वह कार्य किया हो या न किया हो। ऐसा उन परिस्थितियों में ज्यादा होता है जब अमुक अपकृत्य किसी प्रिय द्वारा कर दिया गया हो। इससे इतर भी व्यक्ति अपने आप को तमाम तरह से छलने का प्रयत्न करता रहता है, लेकिन बहुत दिन तक ऐसा कर नहीं पाता है। कहीं न कहीं उसको इस बात आभास हो ही जाता है कि, वह वास्तव में गलत है। लेकिन यह आभास ज्यादातर काफी देर में होता है जो गलत है, सही समय पर इस बात का आभास करना ज्यादा श्रेष्यकर है।




खुद को खुद छलना ठीक नहीं,
अपने दिल से लड़ना, ठीक नहीं।

माथे पर बस वक्त की धूल है,
वक्त से यूँ डरना, ठीक नहीं।

मेरी मानो, ऐसा कम चाहा मैंने,
अपने ज़ज्बातों से लड़ना, ठीक नहीं।

मेरा क्या है प्यार नहीं है साँसों से,
पर बेवक्त तुम्हारा मरना, ठीक नहीं।

जो लूट रहा है वो सच्चा है,
ऐसी बातें करना, ठीक नहीं।

‘‘उन्मत्त’’ दे पाता तो दे देता,
यूँ भी मेरा खुदा बनना, ठीक नहीं।


‘‘उन्मत्त’’

Sunday, December 20, 2009

ज़िन्दगी








अर्सा पहले हमने एक रचना की थी, हमारी यह रचना जीवन के विरूद्ध रची गयी है, आज हमारे मन ने कहा कि, क्यों न आज उसे आप सब के लिए, आप लोगों के सामने लाया जाए। तकरीबन साढ़े नौ साल हो गये हैं इस रचना को लिखे हुए, बहुत बार हमने इसको पढ़ा है, यह उतनी ही भाती है आज भी, जितना हमको यह, लिखे जाने पर भायी थी। हमारे एक मित्र ने हमको सलाह दिया था कि, इसे छोटा कर दें तो ज्यादा प्रभावशाली हो जाएगी। उन्होनें मात्र इस रचना के लिए नहीं, उस समय की लिखी हुयी रचनाओं के बारे में अपनी राय दी थी, लेकिन हमारा मन नहीं माना कभी, कभी भी हमारे मन ने यह नहीं कहा कि, हम इसे छोटा कर दें, उसके मूल स्वरूप में ही आज, आप सबके लिए लाए हैं। लम्बी होने के कारण सम्भव है कि, यह आपको बोझिल करे। उसके बावजूद भी हम अपनी इस रचना को आप तक पहुंचा रहें हैं।

यह मात्र एक रचना ही नहीं है हमारे लिए, जीवन के प्रति इसी रचना के कारण ही हम उतना लगाव नहीं रखते हैं, जितना सामान्यतः रखा जाता है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि, हम मौत से डरते हैं, इसलिए इस डर को भगाने के लिए हमने इसकी रचना की है। और इस रचना ने हमको हमेशा ही इस बात के लिए तैयार रखा कि, जीवन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं हैं, जिस दिन जीवन को देने वाला, जीवन को लेना चाहेगा, तुम्हारे जीवन को ले लेगा और तुमसे एक बार भी नहीं जानना चाहेगा कि, इस जीवन की अभी तुम्हें कितनी देर तक की और आवश्यकता है। जग रचियता के इसी कृत्य के विरूद्ध यह हमारी रचना है।




ज़िन्दगी
क्या है
कैसे कहे
सब की
सब जाने
मेरे लिए
ज़िन्दगी बस
मेरी रखैल है
चार दिन का साथ है बस
जीवन के इस सफ़र में
एक वजह जीने की
एक कारण जीने का
मुश्किल से पटे
इस जीवन में
चार पल का मज़ा ले लेने का
साधन मात्र है
मेरी ज़िन्दगी,
हर तरफ से
ज़िन्दगी को
भोगता हुआ मैं
लगातार निरन्तर बढ़ रहा हूँ
अपनी हमसफ़र
मौत के पास
इस ज़िन्दगी से दूर
बहुत दूर
जहां पर
न मुश्किलों का घर होगा
न उलझनों का डेरा होगा
न कोई दर्द सताएगा
न कोई अपना रूलाएगा
न कोई सम्बन्ध होगा
न कोई सम्बन्धी होगा
न जीए जाने की कशमकश होगी
न रोटी की भूख
न कपड़े का रोना
न किसी छत की चाहत

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इस ज़िन्दगी में रखा क्या है
बस रूलाती ही है
जब
आ ही फॅसा हूँ
मैं तो
उसे साथ रखना ही था
भोगना ही था
झेलना ही था
घर में रहो
या
कहीं बाहर रहो
एक ही चिन्ता
ज़िन्दगी के प्रति
कि
कहीं ठुकरा न दे
और
और किसी को अपना के
मुह छुपाए
कब अपना दामन छुडाए
चलती हुई साँसों को
भागते हुए जीवन को
पलती कल्पनाओं को
बढ़ती इच्छाओं को
अनदेखा कर के
और किसी की
दुनिया बसाने चली जाए
ऐसी ज़िन्दगी के लिए
मेरी ज़िन्दगी में
मेरे मन कोई स्थान नहीं
जो
उम्र की आख़िरी सांस तक
अपने पीछे भगाया करे
जो भाग न पाए
उसे घसीटा करे
इसके बाद भी
जो तैयार न हो
उसे बेमतलब की ये ज़िन्दगी
छोड़कर चली जाती है
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‘उन्मत्त’
इसीलिए कहता है
हर दुनिया वाले से
हर जीने वाले से
ज़िन्दगी को
कमज़ोरी न बनने दो
अपने पर हावी
न होने दो
हमेशा उस पर हावी रहा
इससे पहले कि
ज़िन्दगी भगाए तुम्हे
तुम उससे पहले भागो
तेज
उसकी रफ़्तार से तेज
हैरान हो जाएगी
ज़िन्दगी तुमसे
हाथ न आओ कभी उसके
हर बार जब मौका मिले
जी भर कि
हॅसिए उस पर
नाक में दम कर दीजिए उसके
फिर देखिए आप
कैसे
घुटनों के बल
ये ज़िन्दगी
घसिटती खुद ही आएगी
उस क्षण आप जो चाहे
वह व्यवहार करें
हर चाहत
जो दिल में है
उसके आगे प्रस्तुत करे
ज़िन्दगी की जड़े कमजोर होती है
अगर
आप तेज गए उससे
तो
यह आपकी जीत होगी
आपकी कल्पनाए भी तब
हकीकत का जामा पहनेगीं
हर ख्वाहिश
जो दिल में है
सब की सब
पूरी हो जाएगी
मगर
इसके सिवाए
कि
ज़िन्दगी आपका
साथ नहीं छोड़ेगी
हर कीमत पर यह होगा
कितना भी चाहे उसे
कितना भी प्रताड़ित करे उसे
अन्त
आपका निश्चित है
तो
क्यों गुलाम बने
क्यों ने उसे
गुलाम बनाए हम
इसके बाद भी हर इन्सान
बेवजह उसे पूजता है
लाख मिन्नतें करता है
थोड़ा सा पाने की लालसा में
हाथ जोड़ के गिड़गिड़ाते है
रोते है
मगर
ज़िन्दगी को
कभी तरस नहीं आता
रोने वालों से
उसे आन्नद आता है
और
तो और
उनको वह रूलाया ही करती है
देती कुछ भी नहीं
हमेशा कुछ न कुछ
ले ही लिया करती है
देने के नाम पर
जो उसके पास है
वह लेने लायक नहीं होता
इसलिए मागना नहीं
हर कोई ले लेना चाहते है
ज़िन्दगी से
हाथ बढ़ाकर
छीन लीजिए उससे

-------------------------------

इसलिए मैं
अपनी ज़िन्दगी को
अपनी रखैल कहता हूँ
क्योंकि
मैं
उससे लेकर हमेशा
उसी को डांटता हूँ
उसको जी भर
भोगता हूँ मैं
उसकी हर चीज पर
अपना हक रख़ता हूँ
उसे चाहता भी हूँ
मगर
वह चाहत
जो दिखावा है
एक भूलावा है
ज़िन्दगी को
कि
मैं चाहता हूँ उसे
इसी भरम ज़िन्दगी मेरी
मुझसे कुछ नहीं कहती
मगर
अपनी इस रखैल को
कुछ कीमत भी
अदा करनी पड़ती है
मगर
यकीनन औरों से कम
कीमत होती है
बड़ी खुशियों के लिए
कई छोटी खुशियों को छोड़ना
और
कभी कभी
बड़ी को खुशी को छोड़
तमाम
छोटी छोटी बिखरी खुशियों
को चुन लेता हूँ मैं
उसमें ही जीता हूँ मैं
मगर
कोई चाह नहीं है जीने की
बस साथ निभा रहा हूँ
ज़िन्दगी का
और
निभाता भी रहूगा
मौत तक
वक्त से पहले
ज़िन्दगी को
छोड़ा नहीं जा सकता है
क्योंकि
मौत भले ही
मेरी हमसफ़र हो
मेरी चाहत हो
मेरी ज़िन्दगी हो
पर
मुझे अपनाएगी नहीं
क्योंकि
इस समय मैं
ज़िन्दगी के साथ हूँ
और
मेरी हमसफ़र
मेरे साथ
किसी के और रहते
नहीं आएगी
जब वह आएगी
तब ज़िन्दगी
को जाना होगा
और
वह जाएगी
बस
ऐसे ही लड़ते हुए
ज़िन्दगी से जीते जाना है
ज़िन्दगी का साथ
निभाए जाना है
उस पल तक
वह
खुद न छोड़ दे
अपने बन्धन से
मुक्त न कर दे
अपने ऋणों से
उऋण न कर दे
तब तक मेरी
और ज़िन्दगी की जंग
चलती रहेगी
कभी मैं उस पर
कभी वो मुझ पर
हावी होगी
मगर
मैं जानता हूँ
जीत न मेरी होगी
न ज़िन्दगी की होगी
जीत होगी अगर
कभी तो
सिर्फ़
और सिर्फ़
मौत की
निश्चित ही मौत की
मगर
अनिश्चित दिन।

‘उन्मत्त’

Thursday, December 17, 2009

सन्दीप ओझा




मित्र, यदि जीवन में न हो तो? यह कल्पना करना भी हमारे लिए दूभर है कि, हमारा जीवन मित्रों के बिना कैसा होता या होगा? शायद हमको अस्तित्व को तलाशना पड़ेगा पुनः यदि हमारे जीवन से हमारे मित्रगणों हटा लिया जाए तो। हमारे मित्रों की संख्या बहुत ही कम हैं, लेकिन यह हमारा सौभाग्य है कि, हमारे मित्र उच्चकोटि के व्यक्ति हैं। जीवन 30 से अधिक सालों में, पिछले 16 सालों में हमने अपने जीवन का बहुत समय, अपने मित्रों के साथ गुजारा है। आज जितनी भी सोचने समझने की क्षमता है, वह हमारे अभीष्ट मित्र सन्दीप कुमार ओझा का है, वो इस श्रेय को लेने से सदैव ही इन्कार करते हैं, लेकिन सच को तो बदला ही नहीं जाया जा सकता है। जीवन के झन्झावतों से अगर हमको किसी में उबारने की क्षमता, इस समय यदि इस दुनिया में है तो, वह सिर्फ और सिर्फ सन्दीप के पास ही है, हमें यह कहते हुए भी संकोच नहीं होता है और होगा कि, धरती पर वह हमारे लिए ईश्वर से कम नहीं है, सुनने यह अटपटा लग सकता है, लेकिन जैसा कि, हमने कहा कि, सच तो हमेशा ही रहेगा, उसको बदला नहीं जा सकता है। शायद अपने आप को हमारे लिए ईश्वर ने यही रूप धारण किया हो? शायद के स्थान पर यकीनन का प्रयोग करना उचित समझेगें।

बहुत बार हमने कोशिश की कि, सन्दीप के महत्व को हम जान पाए, लेकिन हर बार विफल हुए हैं, जितना उसके बारे में सोचते हैं, वह उतना ही करीब होता जाता है हमारे। कई बार शब्दों में भी बांधने का प्रयास किया है हमने, मगर वहां पर भी हार ही गये है हम। मित्रता की शुरूआती दौर से हमारे और उसके बीच अक्सर गर्मागम बहसें हो जाया करती हैं, जिसमें हमेशा ही हम ही हारते हैं और हारा ही करें, यही चाहते भी हैं, क्योंकि उस हार से हमको हमेशा ही एक नहीं, कई सीखें मिल जाया करती हैं। 16 सालों की मित्रता में कई अवसर ऐसे भी आए हैं कि, जहां हम लोगों में बातचीत भी नहीं हुयी है, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि, नाराज़गी के कारण हम लोगों ने मिलना जुलना छोड़ दिया रहा हो, वो हमारे घर, हम उसके घर लगातार जाते रहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे सामान्य दिनों में हुआ करता है। जब से दूरसंचार क्रांति आ गयी है, उसके बाद भी कई नाराज़गियाँ हम दोनों के मध्य हुयी है, इसी बरस दो बार ज्यादा ही नाराज़ हुआ है हम पर वह। वैसे सामान्यतः तो हमेशा ही वह हमसे, हमारी आदतांे के कारण नाराज़ हो उठता है। लेकिन हमको तो उसकी बातों की आदत पड़ गयी है, कुछ दिन उसकी बातें न सुने तो, जैसे खाना ही नहीं पचता है। कभी भी सन्दीप से हमने कुछ भी नहीं छिपाया है, यहाँ तक कि, जो कुछ करने की सोच भी लेते हैं उसको भी उसके बताए बिना रह नहीं पाते हैं।

अपनी लाख चाहतों के बाद भी सन्दीप के लिए कुछ पाने में असमर्थ ही रहें हैं, लेकिन फिर भी कहने के प्रयास से कभी भी विमुख नहीं हुए हैं, सफलता कब प्राप्त होगी? इसके बारे में कुछ कह पाना मुष्किल ही है। शायद जीवन भर इसी प्रयास में रहें कि, हम सन्दीप को अपने शब्दों में कह सकें। हमको इस बात की खुषी हमेशा रहेगी कि, हम उसे कभी भी परिभाषित नहीं कर पाए, साथ ही दुआ करतें हैं कि, सन्दीप का व्यक्तित्व ऐसा हो कि, कभी भी, कोई भी उसको परिभाषित ही न कर पाए, कभी कलमबद्ध न कर सके कोई, अथाह, अन्नत हो उसका स्वरूप।


सन्दीप के विषय में हमारी यही चाहत है, यही हरसत है --------

घर जाएगें, फिर आएगें,
मर जाएगें, फिर आएगें।

भूल न जाना अपने इस साथी को,
मर जाएगें, फिर आएगें।

छूट गया है हाथों से हाथ, मगर,
मर जाएगें, फिर आएगें।

निभाने हैं वादे अपने हमको,
मर जाएगें, फिर आएगें।

जा रहें हैं, सैर को कुछ दिन,
मर जाएगें, फिर आएगें।

‘‘उन्मत्त’’ कौन है, जन्नत में मेरा,
मर जाएगें, फिर आएगें।

Sunday, December 13, 2009

विजयश्री







मन! अक्सर मन से ही हम लोग हार जाते हैं, समझ नहीं आता है जीवन के कई मोड़ों पर कि, सही क्या है? और गलत क्या है? मन उपापोह की स्थिति में रहता है, हर पल, हर लम्हा इसी उधेड़बुन में लगा रहता है मन कि, जो कर रहे हैं वो सही है या जो नहीं करने की सोच रहे हैं, वह सही है। ऐसे समय में कोई भी निर्णय लिया जाए, वह गलत ही लगता है, हर बार पश्चाताना ही पड़ता है, चाहे जो भी निर्णय ले लिया जाए, अपने हर किये पर बार बार सोचने की आवश्यकता महसूस होती है।

अपने मनोभाव को जीतने की आवश्यकता होती है, वह भाव जो हर बार, उपापोह की स्थिति को जन्म देता है। अक्सर अतीत भी इस स्थिति में अपना महत्वपूर्ण लेकिन नकारात्मक भूमिका को निभाता है। हास्यापद तो यह होता है कि, हम लोगों में से सामान्य प्रज्ञा वाला व्यक्ति भी इस बात को जानता रहता है कि, यह सब क्यों हो रहा है? इस सबका कारण क्या है? यह सब किस तरह से काम रहा है? बावजूद इसके भी ऐसी परिस्थितियों में अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग नहीं कर पाते हैं।

ऐसा क्यों होता है? कि नकारात्मकता या अतीत, हर बार, हर मौके पर, विशेषतया उन मौकों पर जहाँ पर अपने आप को बुद्धि और विवेक का प्रयोग करना चाहिए होता है, वहीं पर उसकी कमी का अहसास होता है। नकारात्मकता और अतीत वहीं पर सक्रिय हो उठते हैं, जहाँ पर दृढ़ता और परिपक्तवता के साथ साथ भविष्य के प्रति सही दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।

बहुत ही कठिन परिश्रम के बाद हम इस मनोभाव और अतीत के प्रभाव को कम कर पाए हैं और निरन्तर ही इस प्रयास में हैं कि, इस पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर सकें।

अपनी इस रचना के माध्यम से अपने आप को हम लगातार प्रेरित करते हैं:-


बहुत देर बाद

बहुत लड़ के

मैं जीत ही गया

बहुत कुछ खोकर

बहुतों को खोकर

आखि़रकार

मैं जीत ही गया

इस जीत की कीमत

बहुत ज्यादा हो गयी है

मगर

मैं जीत गया

जीत गया मैं

उस विचार से

उस अहसास से

जो मुझे

कमज़ोर बनाता था

उस विचारधारा से

जो मुझमें

नकारात्मक ऊर्जा भरता था

उस अतीत से

जो बीत गया है

जो बीत चुका है

जो वास्तव में

अब गुजर रहा है

और

अब गुजर जाए शायद।

जीत गया मैं

अपने सारे इन अहसासों से।



‘‘उन्मत्त’’

Thursday, December 10, 2009

इसलिए तन्हा हूँ





दुनिया में मौजूद तमाम व्यवहारों में एक व्यवहार है कि, किसी का किसी के प्रति अपना समर्पण। इस समर्पण में प्रेम, आदर, मान - सम्मान और वो सब कुछ शामिल है जो, किन्हीं दो व्यक्तियों के मध्य सम्बन्धों के उद्धभव के साथ प्रारम्भ होते हैं और उसके साथ ही साथ चला करते हैं। आप किसी के प्रति पूर्ण समर्पित हों और एक दिन अचानक पता चले कि, आप का तो वह व्यक्ति इस्तेमाल कर रहा था, जिसके लिए आप समर्पित थे, उसने सिर्फ आपके साथ ही नहीं, आपकी भावना, संवेदना और उस विश्वाश के साथ, जिस विश्वाश से, जिस चाहत से अन्य अमुक से अपना सम्बन्ध बनाते या जोड़ते है उससे खिलवाड़ किया है। ऐसे समय के हालात् के बारे में कुछ कह पाना, उसे शब्दों में कहना, अत्यन्त ही दुष्कर कार्य है, इसलिए ऐसा प्रयास करने का हमारा कोई भी इरादा नहीं है, न ही ऐसा करने का साहस हम जुटा भी पाएगें।

उपरोक्त स्थिति से इतर एक स्थिति यह होती है कि, आप के अपने विचार के, सोच के, धारणाओं और मान्यताओं के विरूद्ध कोई कार्य करे या आप स्पष्ट और सच्चें हो तो, औरों को इस बात से परेशानी हो सकती है। वैसे तो वह आपकी तारीफ़ करेगा लेकिन, जब कभी उसका काम आप के कारण नहीं हुआ या उसका ऐसा कोई काम जिसे आप ने अपने नियमों के अधीन नहीं किया, तब वह अमुक आपके इस व्यवहार को गलत मान जाएगा, आपको बुरा कहेगा या वह ऐसे प्रयास करेगा कि, जिससे आप की छवि धूमिल हो। अगर वह अमुक आपकी छवि को धूमिल नहीं कर पाएगा तो आपके विरूद्ध खुल कर आ जाएगा। चूँकि आप उसका विरोध कर नहीं पाएगें, इतना कहने के अलावा कि, आप गलत नहीं है। हास्यास्पद स्थिति वहाँ पैदा होती है, जब लोग आपकी बात का समर्थन, आपके आगे करते हैं और इस बात को मानते है कि, अमुक की मांग अनुचित थी, उसके बाद आपके न होने पर, उनको यह शिकायत होती है कि, अमुक कार्य को अमुक के लिए कर दिया गया होता तो, गलत तो नहीं था। इतना कुछ मालूम कोने के बाद भी यह जब किया जाता है जब दुःख होता है, तकलीफ़ होती है इस बात की क्यों यह सब जानते बूझते किया जा रहा है?

इसीलिए शायद हमारे मन यही कहा बताया है हमको कि:-



मानी नहीं औरों की, इसलिए तन्हा हूँ,
बेबाक जो ठहरा मैं, इसलिए तन्हा हूँ।

कम ही बचे हैं, अब अपने मेरे,
कि उसूलों पर चला हूँ, इसलिए तन्हा हूँ।

मेरे साथ तो चले थे वो कदम मिला के,
न कहने दिया झूठ उन्हें, इसलिए तन्हा हूँ।

ज़मीर मार के ज़िन्दा नहीं रह सकता था मैं,
छोड़ा नहीं सच का साथ, इसलिए तन्हा हूँ।

खुद को बनाए रखा हमने खुली किताब,
दो चेहरा न रखा, इसलिए तन्हा हूँ।

‘‘उन्मत्त’’ होता रहता इस्तेमाल तो बेहतर रहता,
अब नहीं हूँ खिलौना, इसलिए तन्हा हूँ।

‘‘उन्मत्त’’

Saturday, December 5, 2009

अन्तहीन पथ



अक्सर लोग उन रास्तों को दोष देते फिरते हैं जिन पर वो चला करते हैं, लेकिन ऐसे लोगों को कौन समझाए कि, रास्ते ने उनकों नहीं, उन्होनें रास्ते को चुना है? तमाम उलहनाओं के बाद, तमाम तरह की भत्र्सनाओं के बाद भी, रास्ते कभी भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होते हैं, वह नहीं बदलते हैं, उनकी नीयती ही न बदलना है। उनको बदलने वाले हम इन्सान ही होते हैं। फिर भी उनको ही दोष दिया करते हैं। अपने आप को देखते ही नहीं कि, वास्तव में गलती हमारी ही है, हमने ही गलत राह को चुना है, हमको ही इस राह को छोड़ कर, सही राह को चुनना है। इसे करने से बेहतर ज्यादातर तो यही किया करते हैं कि, अपने दोषों को, औरों पर डालने का कार्य चलता रहता है।


कभी फुरसत मिले अपने लिए भी तो एक बार सोच कर देखिएगा कि, वास्तव में गलत कौन है? औरों के लिए जिस बुद्धिमत्ता का प्रयोग हम सब कर लेते हैं, वह अपने समय में, अपने बारे में कतई भी नहीं आती है। अपने समय में ऐसा लगता है कि, सब कुछ हम सही रह हैं, लेकिन अगर सिर्फ ऐसा सोचने और मानने कि, सब कुछ सही है, हो जाता तो, दुनिया बहुत ही विचित्र होती। खै़र हम सिर्फ इतना कहेगें कि रास्तों को दोष देना बन्द करना चाहिए, अपने निर्णय को देखिए, परखिए, फिर कोई बात कहिए।






दूर नहीं हैं मंज़िल

न पथ का है दोष कोई

मैंने ही चुना है

जिस पथ को

वह पथ ही है ‘‘अन्तहीन पथ’’

बीत गये साल कई

मैं चल रहा निरन्तर हूँ

ठिकाना दिखने की बात दूर रही

उसके होने की आहट न पायी

अपने पथ को कोसा है मैंने बहुत

बहुत सुनायी है उसको बातें

पथ वो शान्त रहा है

मुझको लेकर चलता रहा है

एक दिन यूँ ही बैठे बैठे

अपने निर्णय को जांचा

पाया तब मैंने

पथ नहीं

पथिक गलत होता है

पथ नहीं चुनता है, पथिक

पथिक चुनता है पथ को

पथ अपने कर्तव्यों पर चलता है

अपने अन्त तक

पथिक को लिए रहता है।


‘‘उन्मत्त’’

Wednesday, December 2, 2009

बनाना है





जीवन में कभी कभी ऐसा लगने लगता है कि, अब कुछ बचा ही नहीं दुनिया में हमारे लिए? कुछ भी हमारा नहीं है और कभी कुछ हमारा होगा भी नहीं, यह अहसास उभरने लगता है मन में। पहला भाव जीवन के लिए नुकसानदेह तो है, लेकिन उतना घातक नहीं है, जितना दूसरा भाव कि, कुछ कभी होगा भी नहीं, यह अत्यन्त ही घातक है। यह भाव जीवन के प्रति सारे आकर्षण को समाप्त कर देता है, जीवन के प्रति उत्साह समाप्त हो जाने के बाद, जीवन जीना बेमानी हो जाता है, इसलिए यह भाव जीवन में नहीं आने देना चाहिए। किन्हीं कारणों से यह भाव अगर आ गया तो, पूरा प्रयत्न करना चाहिए कि, जितनी जल्दी हो सके यह भाव अपने आप से दूर किया जा सके। उससे ज्यादा बेहतर यह है कि जीवन में ऐसा मौका जब भी आता दिखे तो, उसके लिए अपने आप को तैयार रखा जाए, अपने आप को संयमित रखे, शान्त भाव से समय का, परिस्थिति का अवलोकन करें, उसके बाद ही किसी परिणाम पर पहुॅचे और कोई प्रतिक्रिया दें।

बहुत आसान होता है इस तरह की बातें करना, लेकिन प्रश्न यह है कि, कितनी बार अपने लिए ऐसे समय में अपने लिए इन बातों का पालन किया जाता है? समय जब विपरीत लगने लगता है तब, जीवन से भाग जाने के सिवा कोई राह तो नहीं सूझता है। किसी पर भी विश्वास करने का मन भी नहीं करता है, मन क्या? विश्वास ही नहीं होता है किसी पर। ऐसा होता है ज्यादातर, अवसाद जब आपका साथ निभाने आता है तब, यकीनन वह पूरी तैयारी के साथ आता है, इस बात के लिए वह पूरी तरह से तैयार रहता है कि, सम्भवतः आप उसे वापस भेजना चाहें, जिसके लिए वह कतई भी तैयार नहीं रहता है। अपने आप से उसका वादा होता है और वह अपने आप से किये वादे को तोड़ना नहीं चाहता है और तोड़ता भी नहीं है वो।





राह नहीं आसान पर, आसान बनाना है ,
नहीं है अभी मगर पहचान, बनाना है।

हाथो की लकीरों का होगा ही हासिल,
कर्मों से खुदा के लिए फरमान, बनाना है।

पूज रही है मुझको दुनिया, पूजा करे हमारी वो,
खुद में पर मुझको अपना सम्मान, बनाना है।

भटक रहा है इधर उधर, जो पागल सा,
मन की इस चंचलता पर व्यवधान, बनाना है।

अहसासों और भावों का घर था दिल मेरा,
लुट चुका है जो, उसको धनवान, बनाना है।

‘‘उन्मत्त’’ जीवन मेरा है, एक दीवान,
अब मुझको बस एक उनवान, बनाना है।

‘‘उन्मत्त’’