Tuesday, November 30, 2010

समय प्रवाह


कभी कभी जीवन में ऐसे भी पल जाते है जहाँ से कुछ भी सोच पाना, कर पाना सब ही मुशिकल हो जाता है बिना किसी बात के ही तमाम तरह के आरोप प्रत्यारोप आप पर लगा दिया जाता है मुश्किल तब और भी हो जाती है जब उन आरोपों के साथ ही रहना होता है, उन्ही आरोपों के कलंक के साथ जीवन निर्वाह करना पड़ता है जीवन के इस अप्रत्याशित दौर से गुजरते हुए अपने आप को सही साबित करने की कभी आवश्यकता ही महसूस नहीं होती है क्योंकि जिसने आप पर आरोप लगाए होते हैं, उसके प्रति एक शब्द बोलने को मन भी साथ नहीं होता है।
जीवन का अपना लेखा-जोखा है, उसके अपने नियम, अपने विनियम है, जिसमें वह किसी प्रकार का हस्तक्षेप को नहीं चाहता है। इसी अनुक्रम में जो हो रहा होता है, वह होता ही रहता है। भले हम लाख प्रयास करें कि, ऐसा न हो, लेकिन होता वही है जो वास्तव में होना होता है। कुछ भी बदल नहीं सकता है, कम से कम त्वरित, तत्क्षण तो कुछ भी नहीं बदल सकता है, जो होना होगा वो होगा ही।


वक़्त कितना भी बुरा आ जाए मगर,
इंसा हर वक़्त में जीना सीख लेता है।


हँसेगा और मुस्कराएगा कितने पल ग़म,
इंसा हर ग़म में जीना सीख लेता है।


दर्द की टीस उठेगी भी तो कितनी उठेगी,
इंसा हर टीस में जीना सीख लेता है।


बद्किस्मती दबाए गला भी क्या होगा,
इंसा हर हाल में जीना सीख लेता है।


निकलना भले हो ही जाए दुस्वार घर से,
इंसा शर्मिदगी में जीना सीख लेता है।


"उन्मत्त" कम परेशान नहीं करती ज़िन्दगी भी,
इंसा हर परेशान में जीना सीख लेता है।


"उन्मत्त"