Tuesday, February 14, 2012

कल, फिर से ................


     



          किसी को भी भूल जाना बहुत ही सहज है। कुछ दिन ही किसी की यादें आपको परेशान और हैरान कर सकती हैं, ज्यादा दिन नहीं। अगर आप थोड़ा गौर करेगें तो पाएगें कि कब आप किसी के साथ बिताये समय से बाहर आ गये, पता ही नहीं चलेगा। समय सब कुछ पहले सा सामान्य कर देता है, लेकिन समय कितना भी बीत जाए, वही समय एक समय ऐसा भी सामने ला कर खड़ा कर देता है कि, फिर से हर बात, हर बीता समय सामने आ खड़ा होता है। और ऐसे समय में, अगर आप मात्र और मात्र अपने साथ हों, तो यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि, जो बीत रहा है वह सच में याद है या फिर वास्तविकता।

तुम हो या यादें सोच रहा हॅूं,
बीते लम्हों के संग खेल रहा हॅूं।

शाम लिए नश्तर हाथों में आती है,
खुद को खुद से लड़ते देख रहा हॅूं।

न मानों मेरी तो, दीवारों से सुन लो,
तकलीफ़ों के साथ फल फूल रहा हॅूं।

जश्न मनाएगें दर्दो के संग फिर से,
चलना तो अब मैं सीख रहा हॅूं।

हैं मुस्कानें मुझमें भी रहतीं ढेरों,
बस हॅसने की वहज खोज रहा हॅूं।

मैं मैं हॅू, भीड़ नहीं हॅू "उन्मत्त",
खुद अपने में तुमको ढूंढ रहा हॅूं।


                          "उन्मत्त"

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