Thursday, February 25, 2010

फागुन आयो रे ---- रंग उड़े, उड़े रे गुलाल







होली पर्व की ढेरों शुभकामनायें




हर होली के रंगों में यूँ रंग जाए जीवन सारा, कि जीवन के हर पर पल रंगीन हो उठे। आशाओं और उम्मीदों के रंग, वास्तविकता की पिचकारियों और प्रेम, सौहार्द के साथ आप पर यूँ बरसे के जीवन की यह होली, एक दिन की न हो, यह होली सारे जीवन की हो।

होली की ढेर सारे रंगों के बीच, पापड़ और गुझियों के साथ, अबीर और गुलाल के फुहारों के मध्य, किसी भी हाल कोई दिल न दु:खे, इस बात का पूरा ख्याल रखिए। सिर्फ रंग ही नहीं प्यार को भी बरसाइए, इस बरस इस होली में।




होली है तो, है हुड़दंग,
साथ साथ है, है संग संग,
बॉट रहें हैं खुशियाँ सब,
बॉट रहे हैं भंग।


कुछ भाग रहें हैं रंगों से,
कुछ भाग रहें हैं खुशियों से,
कुछ खोए हैं अपने से,
कुछ खोए हैं हँसियों से।


दिल खुल जाएगा तो,
मिल जाएगें अपने भी,
बढ़ जाए हौसला तो,
खिल जाएगें सपने भी,


हाथ ही नहीं, दिल भी बढ़ा,
कदम ही नहीं, जज्बात भी चला,
"उन्मत्त" शब्द ही नहीं, भाव भी दिखा,
रंगों के ढेर में अपने दिलों को मिला।
"उन्मत्त"
--- अहसास और संवेदना ---

Sunday, February 21, 2010

रुपेश शर्मा

जीवन में बहुत से व्यक्ति ऐसे होते हैं जो भले ही कम साथ होते हों, लेकिन उनकी उपस्थिति हमेशा से ही गौरव का विषय होती है, इसी क्रम में हमारे एक अन्य मित्र हैं रुपेश शर्मा। उनका भी साथ कक्षा से ही है, लेकिन वक़्त की आपा-धापी में उनसे मुलाकातें के ही बराबर होती हैं, लेकिन सिर्फ इस कारण हमारे सम्बन्धों में और आत्मीयता में कभी कोई कमी नहीं आयी है। सन् 1993 से हमारा और उनका साथ है। उम्र का एक हिस्सा उनकी दोस्ती के साथ का है।

समय का खेल ऐसा रहा कि उनके विवाह में हम शामिल हो सके, उससे भी बढ़कर यह बुरा लगता है कि उनको गये साल पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी, उसके बाद भी मिल सके हम उनसे। अच्छे दोस्त होने का कम से कम इतना फायदा होता है कि, वह हर बात और परिस्थितियों को समझता है और शिकायत कभी नहीं करता है। ऐसा ही हमारे मित्र ने भी किया है, उन्होनें अच्छे मित्र होने का पूरा आभास कराया है।

अजब है ही यह कि उनसे मुलाकातें बहुत ही कम होती है, लेकिन इसका तनिक भी प्रभाव हमारे सम्बन्धों पर नहीं हैं आज भी उनसे ही वही मित्रवत् प्रेम और अपनापन है।

Friday, February 19, 2010

क्षमा


जीवन की आपा-धापी में काफी समय तक सबसे दूर चला गया था, कुछ समय का आभाव था, कुछ तकनीकि का भी आभाव हुआ। नव वर्ष की पूर्व संध्या पर ही हमने गॉव चले गये, जहॉ इंटरनेट की सुविधा मौजूद नहीं है। है भी तो बाज़ार में, जहॉ जाकर इतना समय देने का हमारा मन नहीं किया। घर में बैठकर आराम से अपनी दुनिया में रहना ज्यादा बेहतर लगता है हमको, इसके मुकाबले की हम किसी कैफे में जाकर काम करें।

आज सिर्फ क्षमा मॉगने ही आए हैं हम। किसी और दिन किसी विषय के साथ उपस्थित होगें।