Wednesday, October 28, 2009

एक मुलाकात




एक मुलाकात



मुझे रात भर
जागते देख
एक दिन आख़िर
थक कर
हार कर
गुज़री रात
भगवान
मुझसे मिलने
ही गए
न हाल पूछा मेरा
न अपना हाल पूछने का
एक मौका दिया
साफ शब्दों में कहा
कि
कह आज
जो कहना है
कह दे उसे
जो दिल में है तेरे
जो दिमाग में है तेरे
मैं
उन्हें देखता रहा
कुछ सोचता रहा
शायद उन्होंने
आवाज़ भी दी थी
और
मैं
कहीं खोया था
फिर
उन्होंने आवाज़ दी
साथ ही
कान्धों से पकड़
मुझे हिलाया भी
मैं
कसमसाया
सोच से जागना चाहा
मगर
जाग न पाया
फिर
बिन जाने
कि
ख़्याल मुझ पर
अब भी
हावी है
उन्होंने फिर कहा
कह
देख
मैं आ गया
क्या है
तुझमें चलता रहता
कुछ तो कह
कुछ तो है ही तुममें
मैं
अब जाग चुका था
हर ओर सन्नाटा था
क्योंकि,
क्योंकि
सिर्फ दो
और
सिर्फ दो लोग थे
उस सन्नाटें में
जागते हुए
एक सुनता हुआ
एक कहता हुआ
कहता भी क्या
मैं
मगर
कहा जा रहा था
मुझसे
लगातार
कहने के लिए
अन्ततः
मैंने तय किया
कहना शुरू किया



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कि
क्या कहू
क्या छुपा है आपसे
जो घटा है
उससे अनभिज्ञ नहीं आप
जो घट रहा है
उससे भी अनभिज्ञ नहीं आप
क्या है मन में
क्या है मस्तिष्क में
कुछ भी
कभी भी
छिपा नहीं है आपसे
फिर
फिर क्यों
यह औपचारिका क्यों
आवेग हावी हो रहा था
मुझ पर
क्रोध शिकंजा कस रहा था
मुझ पर
वो शान्त थे
मुस्कराता हुए
जाने किस पर
मुझ पर
या
मेरी बात पर
मगर
शान्त थे वो
बस
एक मौके की तलाश में
कि
उन्हें मौका मिले
बोलने का
आख़िर
वह नियंता था
वह निर्माता था
उसने मौका तलाशा नहीं
अपितु
निर्मित कर लिया



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उन्होंने कहा
यह समय की मांग है
कि
माँगा जाए
तो
दिया जाए
पूछा जाए
तो
कहा जाए
जो माहौल है
जो परिवेश है
उसकी यही रीति है
उसका यही नियम है
और
नियमों का पालन
करना
और
कराना
मेरा कर्म व धर्म है
अब मेरा आवेग
मुझसे हाथ छुड़ा रहा था
मेरा क्रोध मुझे
धोखा देने जा रहा था
अब मैं
शान्त था
वह वक्ता थे
मैं
श्रोता था
फिर
कुछ लम्हें में
सब कुछ
शान्त हो गया
मैं
था ही
वह भी
हो गये
उसकी आँख
कुछ कह रही थी
कुछ जबाव
मुझसे चाह रही थी
मैंने भी उत्तर दिया
उनको
उनकी की भाषा में
खामोश रह के
शान्त रह के
मात्र
आंखों से

---------------

कि
जाइए
निश्चिंत होकर
जाइए
कुछ नहीं चाहिए मुझे
आपका नियम होगा
मांगे जाने पर
दिया जाना
और
आपका ही नियम है
समय आने पर
दिया जाना
और
अगर
मुझे
मिलने का समय है
तो
मिल कर रहेगा
और
अगर
समय नहीं है
मिलने का
तो
चाह कर भी
नियमों का उल्लघन
आप न करेगें
इसलिए
जाइए
कि
नियमों का पालन हो
इसलिए
जाइए
कि
नियमों का पालन करना है
इसलिए
जाइए
कि
सब कुछ नियमतः हो सके
इसलिए
जाइए
कि
जीवन चक्र न टूटे
इसलिए
जाइए
कि
मैं न टूटे
मेरे सब्र का बाँध न टूटे
वह
सुनते रहे
खामोशी से
मेरी
आंखों का हर उत्तर
शान्त रह कर
वो भी चाहते थे
उनकी आँखें भी
चाह रही थी
कुछ कहना
और
शायद
कह भी रही थी
मगर
स्पष्ट
कुछ नहीं था
वह उदास
मगर
निश्चिंत होकर
उठे तो
मेरे करीब आने के लिए
मगर
जाने क्यों
आ नहीं पाए
चला गयें वो
मुझको ही देखते
उल्टे पाँव
जैसे
मैं
मन्दिरों से
उन्हें पीठ दिखाए बगैर
मन्दिर से बाहर आता हूँ
एक पल में
ओझल हो गयें वो
आंखों से
रात
अब भी पसरी थी
सन्नाटा
अब भी कायम था
सोच
अब भी ज़िन्दा थी
नींद
अब भी खोयी थी
बावजूद
इसके
कुछ कहीं बदल जाने की
उम्मीद थी
एक
विशवास था
कि
समय
मेरा भी होगा
कभी।







‘उन्मत्त’








1 comment:

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र said...

चिठ्ठा जगत में आपका स्वागत है। शुरुआत के लिए अच्छी कविता है। लगे रहिए।