Thursday, October 29, 2009

प्रश्न





इस श्रृंखला में लेखन की शुरुआत करने से पहले हम कुछ बातें स्पष्ट करना चाहतें हैं, आगे हम अपने लिए हम का ही प्रयोग करेगें। व्याकरण की दृष्टि से यह गलत है, उसके बाद भी हम, हम का ही प्रयोग करेगें। ‘‘मैं’’ का प्रयोग हम अपने लिए नहीं करते हैं कभी कभी, बोलचाल में भी हम मैं का प्रयोग नहीं करते हैं। क्योंकि ‘‘मैं’’ हमको अहम् का सूचक जान पड़ता है, इसलिए हम उससे परे ही रहते है। इस धृष्टता के लिए हम आप सभी से मांफी माँगते हैं और उम्मीद करते हैं कि आप हमको क्षमा करने का प्रयास करेगें।

बहुत कुछ ऐसा होता रहता है जीवन में, जो इच्छा के विरूद्ध होता है। और हमें वह सब उसी रूप में स्वीकार भी करना होता है, क्योंकि स्वीकार करने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं होता है हम सबके पास। हमारी समझ में आज तक नहीं आया कि जीवन क्या है? वो जो हम जी रहे होते हैं या फिर वो जो हम जीना चाहतें हैं। इच्छाओं के विरूद्ध जीने को जीना तो नहीं ही कहा जा सकता है। फिर भी कहा जाता है। यह किसी आर्श्चय से कम नहीं कि जो न चाहते हों, उसे ही उसी हाल में स्वीकार करना पड़ता है। इच्छाओं के विरूद्ध जीने को जीना कहतें है, जीवन कहते हैं, उनको हम कोटि कोटि वन्दन है।

वास्तव में ज़िन्दगी है क्या?

इस प्रश्न के उत्तर में जाने कितना समय हमने दिया है? मगर कभी भी समझ नहीं पाए हम कि आखि़रकार ज़िन्दगी को किस तरह परिभाषित करें। जिस तरह से जिया जाता है सामान्यतः, यकीनन उसे तो ज़िन्दगी का नाम नहीं दिया जा सकता है, अगर हम अपने दृष्टिकोण से कहें तो। सिर्फ रूपये और अपने आप के अलावा (अपने आप में, अपने शामिल है, जो कि बस चन्द लोग होते हैं) किसी को कुछ सूझता ही नहीं। जिनके पास ढेरों रूपया है, उनको और भी ज्यादा की इच्छा है, और जिनके पास है ही नहीं, उनके बारे में तो समझा ही जा सकता है कि उनको तो दो जून की रोटी भी बडी मुश्किल से मिल पाती है, ऐसे में वो क्या सोचें।

अगर यही ज़िन्दगी है तो, शायद यह सही नहीं है। क्योंकि यकीनन ज़िन्दगी यह नहीं होती है, कि किसी के पास खोने के लिए कुछ हो ही न और किसी के पास खोना शुरू हो भी तो उम्र बीत जाए। ये तो बाहर से दिखने वाली बात है कि अमुक के पास इतना रूपया है, सारी सुख सुविधा उपलब्ध है, तो मात्र यह सब होने से ही ज़िन्दगी में सब कुछ नहीं मिल जाता है। हो सकता है जिनके पास इतना कुछ हो, वो भी परेषान हों। उन्हें भी किसी बात की तकलीफ हो।

क्या मेरी मदद कर सकता है कोई, इस ज़िन्दगी को समझाने में। सालों से परेशान हैं इस तरह के प्रश्न से हम। जिसने वास्तव में मुझे खाली कर दिया है, मानसिक रूप से कंगाल बना दिया है। कुछ सोच पाने में पूर्णरूप से अक्षम हो चुके है इस बारे में। ज़िन्दगी के संबंध में, यदि मुझे कुछ नए दृष्टिकोण दिये जाए तो हम आभारी होगें आप सब के।

कुछ लोगों की लाइनों को उद्धरित कर रहें है जिन्दगी के सम्बन्ध में :-

निदा फ़ाजली साहब की ये लाइनें ज़िन्दगी की उस हकीकत को बयान करती हैं जिसे हम में से ज्यादातर अपनाने में हिचकिचाते हैं -

‘‘ यही है ज़िन्दगी, कुछ खाक चंद उम्मीदें,
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो।’’

अहमद नदीम ने तो ज़िन्दगी को नया रूख ही दे दिया है, और वास्तव में यही होना भी चाहिए कि -

‘‘ज़िन्दगी शमां की मानिन्द जलाता हूँ ‘नदीम’,
बुझ जाऊंगा मगर सुबह तो कर जाऊंगा।’’

या फिर इन पंक्तियों में ज़िन्दगी को अपने पर हावी न होने देने की जो कोशिश है उसको अपनी ज़िन्दगी में आत्मसात करने की कोशिश करनी चाहिए-

‘‘ज़िन्दगी तुमसे हर एक सांस पर समझौता करूँ,
शौक जीने का है मुझको, मगर इतना तो नहीं।’’

क़मर ज़लालाबादी का दर्द अपने लिए नहीं, उन अपनों के लिए है जो हमसे और आपसे जुडे होते हैं, जब हम नहीं होते हैं तो -

‘‘मेरे खुदा मुझको थोडी सी ज़िन्दगी दे दे,
उदास मेरे ज़नाज़े से जा रहा है कोई।’’

और आखिर में कुछ मिला जुला हुआ, मगर सच ज़िन्दगी का और सच भी ऐसा जो वास्तव में बहुत कडुवा है -

‘‘पैगाम ज़िन्दगी ने दिया मौत का मुझे,
मरने के इन्तजार में जीना पडा मुझे।’’

‘‘ज़िन्दगी अपने कब्ज़े में, न अपने बस में मौत,
आदमी मज़बूर है और किस कदर मज़बूर है।’’

‘‘ ज़िन्दगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह कटी है,
जाने किस जु़ल्म की पायी है सजा याद नहीं।’’

जब्र-ए-मुसलसल = लगातार संघर्ष

दोस्तों, हम इंतज़ार करेगें आप सब के इस ज़िन्दगी के संबंध प्रतिक्रिया जरूर मिलेगी, यकीनन कुछ न कुछ तो आप के मन में भी होगा ही। ज़िन्दगी से जुडा हुआ, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। जरूरी नहीं कि तुरन्त ही इसकी प्रतिक्रिया दी जाए। आराम से ज़िन्दगी के सोचिए, जानिए, समझिये, उसका विश्लेषण करिए तब प्रतिक्रिया दीजिए, मगर इस पर प्रतिक्रिया जरूर चाहेगें।

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