Saturday, October 31, 2009

तो समझना मैं हूँ





प्यार करने वालों के लिए हमेशा एक ही धुन रहती है कि जिन्हें वो चाहतें हैं, हर पल, हर लम्हा वो उनके सामने हो, साथ हो। मगर यह होना सम्भव ही नहीं है। तमाम कारणों से ऐसा नहीं हो सकता है कि, जिसे चाहतें हों वो हमेशा ही साथ रहे। कुछ ऐसे पलों के लिए अपनी रचना उद्धरित कर रहें हैं हम। जिन लम्हों में आप अपने साथी के साथ न होने के, उन लम्हों में शायद आपको, अपने प्रिय के होने का अहसास करा सके। यही हमारा ध्येय है, यही इस रचना का मूल उद्देश्य है, इस रचना का मूल सार है:-




हवाएं गुजरते हुए जब कुछ कह के जाए, तो समझना मैं हूँ,
किसी बात पर अश्क छलक आए, तो समझना मैं हूँ।


चलते हुए सड़कों पर या छत, आँगन में बैठे हुए कहीं,
सावन की बूंदे भिगो जाए, तो समझना मैं हूँ।


चिलमिलाती धूप में कहीं दूर दूर तक शामियाना न हो,
कहीं किसी सूखे पेड़ से छाव आए, तो समझना मैं हूँ।


सिकुड़ रहा हो हर इन्सान जहां ठण्ड से बेहाल होके,
और सर्द हवाओं की गर्मी सहलाए, तो समझना मैं हूँ।


फूल गिरे न गिरे राहों में तुम्हारी, कभी भी मगर,
सूखे पत्ते पतझड़ों के बिछ जाए, तो समझना मैं हूँ।


यूँ तो हर लम्हा, हर सांस में मौजूद रहूंगा मैं,
‘‘उन्मत्त’’ कभी जब नज़र न आए, तो समझना मैं हूँ।


‘‘उन्मत्त’’




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