Monday, November 9, 2009

झूठा ठहरा





जीवन में कई बार ऐसे भी क्षण आ जातें हैं, जहां आप सच्चे होते हैं, सही होते है, बेगुनाह होते हैं, लेकिन परिस्थितियों का ऐसा ताना बाना बुना हुआ होता है कि, आपके लाख चाहने पर भी उस उससे अलग नहीं हो सकते हैं और आप गलत हो जाएगें, झूठे हो जाएगें, गुनाहगार हो जाएगें। परिस्थितियों ने अगर आपको दोषी बना दिया तो, मुश्किल ही है कि, आप अपनी बातों के माध्यम से उसे सही साबित कर सकें। ऐसे समय पर फिर तमाम प्रयत्न बेअर्थ हो जातें हैं। उन अपराधों को स्वीकार करना पडता है जो आपने नहीं किये होते हैं या फिर उस रिश्ते को खोया जाए, जिसे खोना सहा नहीं जाया जा सकता है। मगर परिस्थितियों पर न ही वश चलता है और न ही उनको किसी हाल या सूरत में बदला जा सकता है। बदला तो आने वाला समय बदला जा सकता है या उसको बदले का प्रयास आज में किया जा सकता है, लेकिन जो गुजर गया है, उसको किसी हाल नहीं बदला जाया जा सकता है। बस सब कुछ देखते रहना होता है और यही करना भी पड़ता है और करतें हैं भी हम सभी।

ऐसे ही पलों के लिए, एक पल में हमारे अंतर्मन ने गुनगुनाया है:-


अहद् निभाया, झूठा ठहरा,
लौट न पाया, झूठा ठहरा।

पल पल तो उनको सोचा,
बही न लाया, झूठा ठहरा।

हममें भी कमियां हैं कईं,
खोज न पाया, झूठा ठहरा।

दीवानों से अब घर भर आया,
उनवान न लाया, झूठा ठहरा।

दिल मज़बूर है ज़ज्बातों के हाथों,
सच न बताया, झूठा ठहरा।

दौड़ रहा था वक्त उनके घर,
मैं चल न पाया, झूठा ठहरा।

‘‘उन्मत्त’’ लड़ के अना ही होती,
खुद को हराया, झूठा ठहरा।

‘‘उन्मत्त’’

उनवान = र्शीषक
अना = दुःख
दीवान = ग़ज़लों की किताब

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