Saturday, November 28, 2009

सच्चाई




जब किसी को प्रेम होता है तो वह व्यक्त होने के लिए व्याकुल रहता है और अपनी व्याकुलता में वह प्रेम करने वाला कैसे कैसे कार्य करता रहता है, इसका ज्ञान उसको नहीं होता है। किसी भी बात को वह घुमा फिरा कर ऐसे मोड़ता है कि, बात पुनः से प्रेम की चर्चा पर आ जाए या फिर बात को कहीं न कहीं से सीधे सीधे प्रेम से जोड़ दिया जाए। अपनी बात को, अपने भाव को स्वयं न कह कर, प्रेम करने वाला, जिससे प्रेम करना चाहता है उससे कहलवाना और बिना कहे ही उसे कहना चाहता है, उसको बताना चाहता है। ऐसे ऐसे कार्य उसके द्वारा किये जाने लगते है कि, थोड़ी सी भी समझ रखने वाला व्यक्ति समझ जाता है कि, अमुक व्यक्ति क्या चाह रहा है? बावजूद इसके प्रेम की धुन में रहने वाले उस व्यक्ति को, पता भी नहीं होता है, कि वो यह सब कर रहा होता है। शायद यही प्रेम का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है कि, प्रेम करने वाले को पता भी नहीं होता, कि वह अपने प्रेम को हर जगह अभिव्यक्त करता चल रहा है।

प्रेम की अपनी धुन में रहने वाले व्यक्ति के लिए, उनकी स्थिति और उनकी हालत् के लिए हमारी तरह से उन सबहों को, यह रचना, उनके प्रेम की तरह समर्पित है:-



आओ तुमको दिखा दें वो

जिसे तुम सुनना चाहते हो

जो दिखता है मुझे

तुम्हारी ही आँखों में

हमेशा ही छलकता हुआ

कितने नादांन हो तुम

लेके प्यार अपनी आँखों में

ढूढंते हो मेरी आँखों में

कितना अज़ीब है यह

कि

जानते हो जो

वही तो हमसे जानना चाहते हो

आओ दिखा दें तुमको

प्यार हम

जिसे तुम देखना चाहते हो।


‘‘उन्मत्त’’

1 comment:

Himanshu Pandey said...

प्रेम स्वयं को भूलना ही है, अभिव्यक्ति भी ऐसी जो अभिभूत स्थिति में न जाने कैसी-कैसी हो कर सज जाती है ।

आभार प्रविष्टि का ।