Tuesday, November 10, 2009

रोज़ रात








यूँ ही घूमते हुए एक दिन हमारे साथ यही घटना घटी, तभी हमारे मन में ख़्याल आया कि वास्तव में यही होता है। जीवन में ऐसे ही बहुत काम होते हैं, जिन्हें करने का कोई इरादा नहीं होता, कोई इच्छा नहीं होती है, फिर करना पड़ता है। और हम लोग उसे चाहे अनचाहे उसे करते हैं। हम रोज़ रात घूमने निकलते थे, लेकिन यह बात 06.06.2009 को समझ में आयी, जब हमने अपनी परछाई को रौंदा। तब हर रात हम यही तमाशा देखा करते हैं खुद को करते हुए यह सब जानते हुए और लोगों को देखते हैं यह सब करते हुए अनजाने में। हॅसी आती है अपने आप पर कि क्या हुआ अगर हम यह सब जानते हैं? उन्हीं ही की तरह तो हम भी हैं जो यह नहीं जानते हैं। जिन्हें जानकारी नहीं हैं, उनको चिन्ता नहीं है, सूकून है, हमारी तरह यह तो रोज़ नहीं सोचते हैं।



मैं रोज़ रात को
टहलने निकलता हूँ
कुछ दूर घर से मेरे
मेरे मोहल्ले का चैराहा है
जहां ऊंचे एक खम्भे पर
बल्लों का गुच्छा रखा है
जिसका उजाला खुद को
सूरज के उजालों से कम नहीं आंकता
उसी उजाले में मुझे
अपनी ढेरों परछाईया दिखती हैं
इधर उधर भटकती हुयीं
साथ मेरे चलती हुयीं
मेरे ख़्वाबों की तरह
मेरे ख़्यालों की तरह
और मैं जैसे
अपनी उन परछाईयों को
न चाहते हुए भी
जानते समझते हुए भी
रौंद कर आगे बढ़ जाता हूँ
ऐसे ही कुचल उठते हैं
हर रोज़
ख़्वाब ज़िन्दगी के
मुझसे ही
न चाहते हुए भी
तोड़ना पड़ता है
ख़्वाब ज़िन्दगी का
और मैं कुछ नहीं कर पाता
अज़ीब है यह सब
मगर
यही तो ज़िन्दगी है शायद।


‘उन्मत्त’

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