Thursday, November 26, 2009

वक्त का रूख मोड़ता चल




सामान्यतः व्यक्ति अपने आप को स्वयं ही कष्ट में रखता है, अपने आप को खुद ही उन हालातों में रखना पसन्द रखता है जिनमें वो रहना भी नहीं चाहता है। यह सुनने में अज़ीब लग ज़रूर रहा है, लेकिन सच यही है। किसी अन्य व्यक्ति के जीवन को, उसकी क्रिया प्रतिक्रिया को, बहुत ही आसानी के साथ देखा, सुना और समझा जाता है, अपने जीवन को, अपनी क्रिया प्रतिक्रिया के मुकाबले। इसीलिए किसी अन्य के बारे में अक्सर ही यह कह दिया जाता है या कहा जाता है कि, अमुक की अमुक समस्या, खुद उसके द्वारा ही निर्मित की गयी समस्या है, लेकिन जब कभी ऐसा हम स्वयं करते हैं, तो उस समय इस बात का आभास तक नहीं होता है, कि उस अमुक को भी कुछ ऐसा ही अहसास, आभास हो रहा होता है। जब हम वो सब कर रहे थे, जो वास्तव में नहीं करना चाहिए था।

हमेशा तो ऐसा नहीं होता है, लेकिन ज्यादातर ऐसा होता है कि, हमारा मन ही किसी भी सामान्य सी समस्या को विकराल रूप में विकसित और प्रचारित कर देता है, जिसके कारण ही वह समस्य इतनी जटिल हो जाती है कि, जीवन ही दुष्कर लगने लगता है। क्या वास्तव में ऐसा ही होता है कि, हमारा मन या मस्तिष्क इतना बड़ा काम इतनी आसानी से कर लेता है? कर लेता है, तभी तो यह बात समझ में आती है। हाँ, यह बात और है कि, जब वह वक्त गुजर जाता है, तब लगने लगता है कि, वाकई हमने ही एक छोटी सी बात को किस रूप में विकसित और प्रचारित होने दिया? इस रूप में की अपने आप के लिए ही समस्या हम स्वयं बन गये।

अपने स्तर पर हर प्रयास करते हैं, लेकिन अक्सर हार जाया करते हैं परिस्थितियों के आगे। भूल जाया करते हैं अपने आप से ही किया हुआ वादा।

इन्हीं लम्हों के विरूद्ध, हमको सिर्फ यही कहना है:-


वक्त का रूख मोड़ता चल,
साथ दर्दों का छोड़ता चल।

पावं ही तो नहीं है गमों के,
साथ खुशियों के, दौड़ता चल।

टीस कल की जहां से आती है,
गाँठ उन यादो की, उधेड़ता चल।

अक्श अपना ही न दिखा पाए जो,
बेकार के उन आइनों को, तोड़ता चल।

दे ना पाए जोश, बन जाए जो बोझ,
साथ के बेबात के रिश्ते, छोड़ता चल।

‘‘उन्तत्त’’ एक ही ताल पर थिरक रही है,
ऐसी बेसबब ज़िन्दगी का ध्यान, तोड़ता चल।

‘‘उन्तत्त’’