Sunday, November 22, 2009

कल









कभी कभी अपने आप से या कहें कि अपने ही मन पूछते हैं कि अगर बीता हुआ कल वापस आ सकता तो क्या होता? कई बार तो लगा कि अच्छा होता, कम से कम हम अपनी गलतियों को सुधार तो सकतें लेकिन, तभी मन यह भी कह उठता है कि, सम्भवतः उसमें फेर बदल कर, अपने हित में प्रयोग करना चाहो तब। सच है अगर ऐसा हुआ तो ज्यादातर तो मन डोल ही जाएगा। और अगर मन डोल गया तो उसको सम्भालना मुश्किल हो जाएगा। इतिहास रोज़ के रोज़ बदल जाया करेगें। व्यक्ति स्वयं को ईश्वर से कम नहीं समझेगा, लेकिन बाद उसके भी हमारा अक्सर यह चाह लेता है कि, काश! वक्त की नब्ज़ हमारे हाथों में होती।

ऐसा तो हो नहीं सकता, उससे बढ़कर ऐसा होना ही नहीं चाहिए कि, वक्त की डोर हम लोगों के हाथ में आ जाए। मगर चाहतें हैं कि चाह लेती हैं कि, ऐसा होता तो अच्छा था। इस बारे में नहीं सोचती हैं कि इस बार गलती न करें कि, अगली बार फिर से वक्त को पाने, वक्त को उलटने की चाहत हो। अपने किये हुए को बदलने के लिए, अपने हित में सब कुछ, बिना किसी मेहनत के करने की ललक ही शायद मन से यह चाहत कराती है। लेकिन कभी कभी गलती की नहीं जाती हैं, बस हो जाया करती हैं और सच कहें तो होती भी नहीं हैं, करायी जाती हैं, किसके द्वारा? यह हर व्यक्ति के लिए अलग अलग हो सकता है। व्यक्ति चाहता कुछ है, लेकिन करना कुछ पड़ता है, ऐसे समय के लिए वक़्त को पलटने का अवसर मिलना चाहिए। फिर भी नहीं मिलता है। ईश्वर के अपने कारण है और उचित है, क्योंकि एक अच्छा करने में अगर हजार बुरा हो जाए तो, एक अच्छा करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है और यही उचित व बेहतर नियम है।



बीत चुका है वो कल

फिर भी वहीं खड़ा है

आवाज़ देता रहता है अक्सर

कि

मैं वहीं हूँ

जहाँ था मैं

तुम ही भूल रहे हो मुझे

कहाँ हो आजकल तुम

पूछता है

रह रह के

अहसास कराता है

कि

वक्त बस बीतता है

गुजरता नहीं हैं

ठहर जाता है

उम्र भर के लिए

जीवन में।


"उन्मत्त"

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