Thursday, December 10, 2009

इसलिए तन्हा हूँ





दुनिया में मौजूद तमाम व्यवहारों में एक व्यवहार है कि, किसी का किसी के प्रति अपना समर्पण। इस समर्पण में प्रेम, आदर, मान - सम्मान और वो सब कुछ शामिल है जो, किन्हीं दो व्यक्तियों के मध्य सम्बन्धों के उद्धभव के साथ प्रारम्भ होते हैं और उसके साथ ही साथ चला करते हैं। आप किसी के प्रति पूर्ण समर्पित हों और एक दिन अचानक पता चले कि, आप का तो वह व्यक्ति इस्तेमाल कर रहा था, जिसके लिए आप समर्पित थे, उसने सिर्फ आपके साथ ही नहीं, आपकी भावना, संवेदना और उस विश्वाश के साथ, जिस विश्वाश से, जिस चाहत से अन्य अमुक से अपना सम्बन्ध बनाते या जोड़ते है उससे खिलवाड़ किया है। ऐसे समय के हालात् के बारे में कुछ कह पाना, उसे शब्दों में कहना, अत्यन्त ही दुष्कर कार्य है, इसलिए ऐसा प्रयास करने का हमारा कोई भी इरादा नहीं है, न ही ऐसा करने का साहस हम जुटा भी पाएगें।

उपरोक्त स्थिति से इतर एक स्थिति यह होती है कि, आप के अपने विचार के, सोच के, धारणाओं और मान्यताओं के विरूद्ध कोई कार्य करे या आप स्पष्ट और सच्चें हो तो, औरों को इस बात से परेशानी हो सकती है। वैसे तो वह आपकी तारीफ़ करेगा लेकिन, जब कभी उसका काम आप के कारण नहीं हुआ या उसका ऐसा कोई काम जिसे आप ने अपने नियमों के अधीन नहीं किया, तब वह अमुक आपके इस व्यवहार को गलत मान जाएगा, आपको बुरा कहेगा या वह ऐसे प्रयास करेगा कि, जिससे आप की छवि धूमिल हो। अगर वह अमुक आपकी छवि को धूमिल नहीं कर पाएगा तो आपके विरूद्ध खुल कर आ जाएगा। चूँकि आप उसका विरोध कर नहीं पाएगें, इतना कहने के अलावा कि, आप गलत नहीं है। हास्यास्पद स्थिति वहाँ पैदा होती है, जब लोग आपकी बात का समर्थन, आपके आगे करते हैं और इस बात को मानते है कि, अमुक की मांग अनुचित थी, उसके बाद आपके न होने पर, उनको यह शिकायत होती है कि, अमुक कार्य को अमुक के लिए कर दिया गया होता तो, गलत तो नहीं था। इतना कुछ मालूम कोने के बाद भी यह जब किया जाता है जब दुःख होता है, तकलीफ़ होती है इस बात की क्यों यह सब जानते बूझते किया जा रहा है?

इसीलिए शायद हमारे मन यही कहा बताया है हमको कि:-



मानी नहीं औरों की, इसलिए तन्हा हूँ,
बेबाक जो ठहरा मैं, इसलिए तन्हा हूँ।

कम ही बचे हैं, अब अपने मेरे,
कि उसूलों पर चला हूँ, इसलिए तन्हा हूँ।

मेरे साथ तो चले थे वो कदम मिला के,
न कहने दिया झूठ उन्हें, इसलिए तन्हा हूँ।

ज़मीर मार के ज़िन्दा नहीं रह सकता था मैं,
छोड़ा नहीं सच का साथ, इसलिए तन्हा हूँ।

खुद को बनाए रखा हमने खुली किताब,
दो चेहरा न रखा, इसलिए तन्हा हूँ।

‘‘उन्मत्त’’ होता रहता इस्तेमाल तो बेहतर रहता,
अब नहीं हूँ खिलौना, इसलिए तन्हा हूँ।

‘‘उन्मत्त’’

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