Sunday, December 20, 2009

ज़िन्दगी








अर्सा पहले हमने एक रचना की थी, हमारी यह रचना जीवन के विरूद्ध रची गयी है, आज हमारे मन ने कहा कि, क्यों न आज उसे आप सब के लिए, आप लोगों के सामने लाया जाए। तकरीबन साढ़े नौ साल हो गये हैं इस रचना को लिखे हुए, बहुत बार हमने इसको पढ़ा है, यह उतनी ही भाती है आज भी, जितना हमको यह, लिखे जाने पर भायी थी। हमारे एक मित्र ने हमको सलाह दिया था कि, इसे छोटा कर दें तो ज्यादा प्रभावशाली हो जाएगी। उन्होनें मात्र इस रचना के लिए नहीं, उस समय की लिखी हुयी रचनाओं के बारे में अपनी राय दी थी, लेकिन हमारा मन नहीं माना कभी, कभी भी हमारे मन ने यह नहीं कहा कि, हम इसे छोटा कर दें, उसके मूल स्वरूप में ही आज, आप सबके लिए लाए हैं। लम्बी होने के कारण सम्भव है कि, यह आपको बोझिल करे। उसके बावजूद भी हम अपनी इस रचना को आप तक पहुंचा रहें हैं।

यह मात्र एक रचना ही नहीं है हमारे लिए, जीवन के प्रति इसी रचना के कारण ही हम उतना लगाव नहीं रखते हैं, जितना सामान्यतः रखा जाता है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि, हम मौत से डरते हैं, इसलिए इस डर को भगाने के लिए हमने इसकी रचना की है। और इस रचना ने हमको हमेशा ही इस बात के लिए तैयार रखा कि, जीवन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं हैं, जिस दिन जीवन को देने वाला, जीवन को लेना चाहेगा, तुम्हारे जीवन को ले लेगा और तुमसे एक बार भी नहीं जानना चाहेगा कि, इस जीवन की अभी तुम्हें कितनी देर तक की और आवश्यकता है। जग रचियता के इसी कृत्य के विरूद्ध यह हमारी रचना है।




ज़िन्दगी
क्या है
कैसे कहे
सब की
सब जाने
मेरे लिए
ज़िन्दगी बस
मेरी रखैल है
चार दिन का साथ है बस
जीवन के इस सफ़र में
एक वजह जीने की
एक कारण जीने का
मुश्किल से पटे
इस जीवन में
चार पल का मज़ा ले लेने का
साधन मात्र है
मेरी ज़िन्दगी,
हर तरफ से
ज़िन्दगी को
भोगता हुआ मैं
लगातार निरन्तर बढ़ रहा हूँ
अपनी हमसफ़र
मौत के पास
इस ज़िन्दगी से दूर
बहुत दूर
जहां पर
न मुश्किलों का घर होगा
न उलझनों का डेरा होगा
न कोई दर्द सताएगा
न कोई अपना रूलाएगा
न कोई सम्बन्ध होगा
न कोई सम्बन्धी होगा
न जीए जाने की कशमकश होगी
न रोटी की भूख
न कपड़े का रोना
न किसी छत की चाहत

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इस ज़िन्दगी में रखा क्या है
बस रूलाती ही है
जब
आ ही फॅसा हूँ
मैं तो
उसे साथ रखना ही था
भोगना ही था
झेलना ही था
घर में रहो
या
कहीं बाहर रहो
एक ही चिन्ता
ज़िन्दगी के प्रति
कि
कहीं ठुकरा न दे
और
और किसी को अपना के
मुह छुपाए
कब अपना दामन छुडाए
चलती हुई साँसों को
भागते हुए जीवन को
पलती कल्पनाओं को
बढ़ती इच्छाओं को
अनदेखा कर के
और किसी की
दुनिया बसाने चली जाए
ऐसी ज़िन्दगी के लिए
मेरी ज़िन्दगी में
मेरे मन कोई स्थान नहीं
जो
उम्र की आख़िरी सांस तक
अपने पीछे भगाया करे
जो भाग न पाए
उसे घसीटा करे
इसके बाद भी
जो तैयार न हो
उसे बेमतलब की ये ज़िन्दगी
छोड़कर चली जाती है
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‘उन्मत्त’
इसीलिए कहता है
हर दुनिया वाले से
हर जीने वाले से
ज़िन्दगी को
कमज़ोरी न बनने दो
अपने पर हावी
न होने दो
हमेशा उस पर हावी रहा
इससे पहले कि
ज़िन्दगी भगाए तुम्हे
तुम उससे पहले भागो
तेज
उसकी रफ़्तार से तेज
हैरान हो जाएगी
ज़िन्दगी तुमसे
हाथ न आओ कभी उसके
हर बार जब मौका मिले
जी भर कि
हॅसिए उस पर
नाक में दम कर दीजिए उसके
फिर देखिए आप
कैसे
घुटनों के बल
ये ज़िन्दगी
घसिटती खुद ही आएगी
उस क्षण आप जो चाहे
वह व्यवहार करें
हर चाहत
जो दिल में है
उसके आगे प्रस्तुत करे
ज़िन्दगी की जड़े कमजोर होती है
अगर
आप तेज गए उससे
तो
यह आपकी जीत होगी
आपकी कल्पनाए भी तब
हकीकत का जामा पहनेगीं
हर ख्वाहिश
जो दिल में है
सब की सब
पूरी हो जाएगी
मगर
इसके सिवाए
कि
ज़िन्दगी आपका
साथ नहीं छोड़ेगी
हर कीमत पर यह होगा
कितना भी चाहे उसे
कितना भी प्रताड़ित करे उसे
अन्त
आपका निश्चित है
तो
क्यों गुलाम बने
क्यों ने उसे
गुलाम बनाए हम
इसके बाद भी हर इन्सान
बेवजह उसे पूजता है
लाख मिन्नतें करता है
थोड़ा सा पाने की लालसा में
हाथ जोड़ के गिड़गिड़ाते है
रोते है
मगर
ज़िन्दगी को
कभी तरस नहीं आता
रोने वालों से
उसे आन्नद आता है
और
तो और
उनको वह रूलाया ही करती है
देती कुछ भी नहीं
हमेशा कुछ न कुछ
ले ही लिया करती है
देने के नाम पर
जो उसके पास है
वह लेने लायक नहीं होता
इसलिए मागना नहीं
हर कोई ले लेना चाहते है
ज़िन्दगी से
हाथ बढ़ाकर
छीन लीजिए उससे

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इसलिए मैं
अपनी ज़िन्दगी को
अपनी रखैल कहता हूँ
क्योंकि
मैं
उससे लेकर हमेशा
उसी को डांटता हूँ
उसको जी भर
भोगता हूँ मैं
उसकी हर चीज पर
अपना हक रख़ता हूँ
उसे चाहता भी हूँ
मगर
वह चाहत
जो दिखावा है
एक भूलावा है
ज़िन्दगी को
कि
मैं चाहता हूँ उसे
इसी भरम ज़िन्दगी मेरी
मुझसे कुछ नहीं कहती
मगर
अपनी इस रखैल को
कुछ कीमत भी
अदा करनी पड़ती है
मगर
यकीनन औरों से कम
कीमत होती है
बड़ी खुशियों के लिए
कई छोटी खुशियों को छोड़ना
और
कभी कभी
बड़ी को खुशी को छोड़
तमाम
छोटी छोटी बिखरी खुशियों
को चुन लेता हूँ मैं
उसमें ही जीता हूँ मैं
मगर
कोई चाह नहीं है जीने की
बस साथ निभा रहा हूँ
ज़िन्दगी का
और
निभाता भी रहूगा
मौत तक
वक्त से पहले
ज़िन्दगी को
छोड़ा नहीं जा सकता है
क्योंकि
मौत भले ही
मेरी हमसफ़र हो
मेरी चाहत हो
मेरी ज़िन्दगी हो
पर
मुझे अपनाएगी नहीं
क्योंकि
इस समय मैं
ज़िन्दगी के साथ हूँ
और
मेरी हमसफ़र
मेरे साथ
किसी के और रहते
नहीं आएगी
जब वह आएगी
तब ज़िन्दगी
को जाना होगा
और
वह जाएगी
बस
ऐसे ही लड़ते हुए
ज़िन्दगी से जीते जाना है
ज़िन्दगी का साथ
निभाए जाना है
उस पल तक
वह
खुद न छोड़ दे
अपने बन्धन से
मुक्त न कर दे
अपने ऋणों से
उऋण न कर दे
तब तक मेरी
और ज़िन्दगी की जंग
चलती रहेगी
कभी मैं उस पर
कभी वो मुझ पर
हावी होगी
मगर
मैं जानता हूँ
जीत न मेरी होगी
न ज़िन्दगी की होगी
जीत होगी अगर
कभी तो
सिर्फ़
और सिर्फ़
मौत की
निश्चित ही मौत की
मगर
अनिश्चित दिन।

‘उन्मत्त’

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