Tuesday, December 29, 2009

ठीक नहीं





ज्यादातर व्यक्ति किसी भी कृत्य के लिए अपने को दोष देकर के मुक्ति पाना चाहता है, चाहे उसने वह कार्य किया हो या न किया हो। ऐसा उन परिस्थितियों में ज्यादा होता है जब अमुक अपकृत्य किसी प्रिय द्वारा कर दिया गया हो। इससे इतर भी व्यक्ति अपने आप को तमाम तरह से छलने का प्रयत्न करता रहता है, लेकिन बहुत दिन तक ऐसा कर नहीं पाता है। कहीं न कहीं उसको इस बात आभास हो ही जाता है कि, वह वास्तव में गलत है। लेकिन यह आभास ज्यादातर काफी देर में होता है जो गलत है, सही समय पर इस बात का आभास करना ज्यादा श्रेष्यकर है।




खुद को खुद छलना ठीक नहीं,
अपने दिल से लड़ना, ठीक नहीं।

माथे पर बस वक्त की धूल है,
वक्त से यूँ डरना, ठीक नहीं।

मेरी मानो, ऐसा कम चाहा मैंने,
अपने ज़ज्बातों से लड़ना, ठीक नहीं।

मेरा क्या है प्यार नहीं है साँसों से,
पर बेवक्त तुम्हारा मरना, ठीक नहीं।

जो लूट रहा है वो सच्चा है,
ऐसी बातें करना, ठीक नहीं।

‘‘उन्मत्त’’ दे पाता तो दे देता,
यूँ भी मेरा खुदा बनना, ठीक नहीं।


‘‘उन्मत्त’’

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