Sunday, December 13, 2009

विजयश्री







मन! अक्सर मन से ही हम लोग हार जाते हैं, समझ नहीं आता है जीवन के कई मोड़ों पर कि, सही क्या है? और गलत क्या है? मन उपापोह की स्थिति में रहता है, हर पल, हर लम्हा इसी उधेड़बुन में लगा रहता है मन कि, जो कर रहे हैं वो सही है या जो नहीं करने की सोच रहे हैं, वह सही है। ऐसे समय में कोई भी निर्णय लिया जाए, वह गलत ही लगता है, हर बार पश्चाताना ही पड़ता है, चाहे जो भी निर्णय ले लिया जाए, अपने हर किये पर बार बार सोचने की आवश्यकता महसूस होती है।

अपने मनोभाव को जीतने की आवश्यकता होती है, वह भाव जो हर बार, उपापोह की स्थिति को जन्म देता है। अक्सर अतीत भी इस स्थिति में अपना महत्वपूर्ण लेकिन नकारात्मक भूमिका को निभाता है। हास्यापद तो यह होता है कि, हम लोगों में से सामान्य प्रज्ञा वाला व्यक्ति भी इस बात को जानता रहता है कि, यह सब क्यों हो रहा है? इस सबका कारण क्या है? यह सब किस तरह से काम रहा है? बावजूद इसके भी ऐसी परिस्थितियों में अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग नहीं कर पाते हैं।

ऐसा क्यों होता है? कि नकारात्मकता या अतीत, हर बार, हर मौके पर, विशेषतया उन मौकों पर जहाँ पर अपने आप को बुद्धि और विवेक का प्रयोग करना चाहिए होता है, वहीं पर उसकी कमी का अहसास होता है। नकारात्मकता और अतीत वहीं पर सक्रिय हो उठते हैं, जहाँ पर दृढ़ता और परिपक्तवता के साथ साथ भविष्य के प्रति सही दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।

बहुत ही कठिन परिश्रम के बाद हम इस मनोभाव और अतीत के प्रभाव को कम कर पाए हैं और निरन्तर ही इस प्रयास में हैं कि, इस पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर सकें।

अपनी इस रचना के माध्यम से अपने आप को हम लगातार प्रेरित करते हैं:-


बहुत देर बाद

बहुत लड़ के

मैं जीत ही गया

बहुत कुछ खोकर

बहुतों को खोकर

आखि़रकार

मैं जीत ही गया

इस जीत की कीमत

बहुत ज्यादा हो गयी है

मगर

मैं जीत गया

जीत गया मैं

उस विचार से

उस अहसास से

जो मुझे

कमज़ोर बनाता था

उस विचारधारा से

जो मुझमें

नकारात्मक ऊर्जा भरता था

उस अतीत से

जो बीत गया है

जो बीत चुका है

जो वास्तव में

अब गुजर रहा है

और

अब गुजर जाए शायद।

जीत गया मैं

अपने सारे इन अहसासों से।



‘‘उन्मत्त’’

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